पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७८

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बौख-पम-दर्शन चित्त ही अति विचित्र सत्त्व लोक की रचना करता है; इसलिए, चित्त का दमन अत्यन्त प्राव- श्यक है । जिसका चित्त पाप से निवृत्त है, उसके लिए. भय का कोई हेतु नहीं है। जिसका चित्त स्वायत्त है, उसके मुख की हानि नहीं होती । इसलिए पाप चित्त से कोई अधिक भयानक वस्तु नहीं है । यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि दानपारमिता श्रादि में चित्त कैसे प्रधान है, स्योंकि दानपारमिता का लक्षण सब प्राणियों का दारिद्रय दूर करना है, और इसका चित्त से कोई संबन्ध नहीं है। यह शंका अनुचित है। यदि दानपारमिता का अर्थ- -समस्त जगत् के दारिद्रय को दूर कर सब सत्रों को परिपूर्ण करना ही हो तो अनेक बुद्ध हो चुके हैं, पर आज भी जगत् दरिद्र है। तो क्या उनमें दानपारमिता न थी। ऐसा नहीं कहा जा सकता। दान- पारमिता का अर्थ केवल यही है कि सब वस्तुत्रों का सब जीवों के लिए दान और दानफल का भी परित्याग । इस प्रकार के अभ्यास से मात्सर्यमल का अपनयन होता है, और चित्त निरासंग हो जाता है। इस प्रकार दानपारमिता निष्पन्न होती है। इसलिए दानपारमिता चित्त से भिन्न नहीं है । शीलपारमिता भी इसी प्रकार चित्त से भिन्न नहीं है । शील का अर्थ है-प्राणाति- पात श्रादि सब गर्हित कार्यों से चित्त की विरति । विरति-चित्तता ही शील है । इसी प्रकार क्षान्तिपारमिता का अर्थ है--दूसरे के द्वारा अपकार के होते हुए भी चित्त की अकोपनता । शत्रु गगन के समान अपर्यन्त हैं। उनका मारना अशक्य है, पर उपाय द्वारा यह शक्य है। उनके किए हुए, अपकार को न गिनना ही उपाय है। क्रोधादि से चित्त की निवृत्ति होने से ही उनकी मृत्यु हो जाती है । वीर्य-पारमिता का लक्षण कुशलोत्साह है। यह सष्टरूपेण चित्त है । ध्यान-पारमिता का लक्षण चिनेकाग्रता है; इसलिए उसको चित्त से पृथक् नहीं बताया जा सकता । प्रज्ञा तो निर्विवाद रूप से चित्त ही है । शत्रु प्रभृति जो बाह्य भाव हैं, उनका निवारण करना शक्य नहीं है, वित्त के निवारण से ही कार्य-सिद्धि होती है। इसलिए बोधिसत्य को अपकार-क्रिया से अपने चित्त का निवारण करना चाहिये । शान्तिदेव कहते हैं- भूमि छादयितुं सर्वां कुतश्चर्म भविष्यति । उपानच्चममात्रेण छना भवति मेदिनी ।। [बोधि० ५,१३] अर्थात् कंटकादि से रक्षा करने के लिए, पृथ्वी को चर्म से आच्छादित करना उचित ही है । पर यह संभव नहीं है, क्योंकि इतना चर्म कहाँ मिलेगा ? यदि मिले भी तो छादन असंभव है। पर उपाय द्वारा कंकादि से रक्षा शक्य है। उपानह के चर्म द्वारा सब भूमि छादित हो जाती है । इसी प्रकार अनन्त बाय भावों का निवारण एक चित के निवारण से होता है । चित्त की रक्षा के लिए, स्मृति' और 'संप्रनन्या की रक्षा आवश्यक है । 'मति का अर्थ है 'स्मरण। किसका स्मरण । विहित और प्रतिषिद्ध का स्मरण । विहित प्रतिषिद्धयोर्य- थायोग स्मरण स्मृतिः [ मो• पृ० १०८]1