पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७९

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दशम भण्याय आर्यनचूड-सूत्र में कहा है, कि स्मृति से ब्लेशों का प्रादुर्भाव नहीं होता; स्मृति से ही सुरक्षित होकर मनुष्य उत्पथ या कुमार्ग में पैर नहीं रखता । स्मृति उस द्वारपाल की तरह है जो अकुशल को अवकाश नहीं देती [शिक्षा० पृ. १२० । संप्रजन्य का अर्थ है--प्रत्यवेक्षण । किसकी प्रत्यवेक्षा करना ? काय और चित्त की अवस्था का प्रत्यवेक्षण करना। खाते-पीते, सोते-जागते, उठते बैठने हर समय काय और चित्त का निरीक्षण अभीष्ट है। स्मृति तीन आदर से हो उत्पन्न होती है। तीन श्रादर शमय- माहात्म्य बानने से ही होता है । 'शमा चित्त की शान्ति को कहते हैं। अचलपता, चंचलता सौम्यभाव, अनुक्तता, कर्मण्यता, एकाग्रता, एकारामता इत्यादि शम के लक्षण हैं। शम ही के प्रभाव से चित्त समाहित होता है, और ममाहित-चित्त होने से ही यथा- भूत-दर्शन होता है । यथाभूत-दर्शन से ही सत्वों के प्रति महाकाणा उत्पन्न होती है, बोधिसत्व की इन्छा होती है कि मैं सब सत्वों को भी यथाभूत परिज्ञान कराऊँ । इस प्रकार वह शील, नित्त, और प्रज्ञा की परिपूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सम्यक् संबोधि प्राप्त करता है। इसलिए वह शील में सुप्रतिष्ठित होता है, और बिना विचलित हुए, बिना शिशिलता के, उसके लिए. यत्नवान् होता है । यह जानकर कि शम से अपना और पराये का कल्याण होगा, अनन्त दुःखों का समतिक्रमण और अनन्त लौकिक तथा लोको तर सुखसंपत्ति की प्राप्ति होगी, बोधिसत्व को शम की श्राकांक्षा होनी चाहिये । इससे शिक्षा के लिए तोत्र सादर उत्पन्न होता है, जिससे स्मृति उत्पन्न होती है, स्मृति से अनर्थ का परिहार होता है । इसलिए जो अात्मभाव का रक्षा करना चाहता है, उसको स्मृति के मूल का अन्वे गा कर नित्य सजग रहना चाहिये। शील से समाधि होती है । चन्द्रदीपसूत्र में कहा है, कि जो समाधि चाहता है,उसका शील विशुद्ध होना चाहिये और उसको स्मृति तथा संग्रजन्य ग्रहण करना चाहिए । शीलार्थी को भी समाधि के लिए, यनवान होना चाहिये। शील और समाधि द्वारा चित्त-परिकम की निष्पत्ति होती है। यही बोधिसत्व-शिक्षा है, क्योंकि पुरुषार्थ का यही मूल है ( शिक्षा पृ० १२१ ) । आयरनमेष में कहा है-चित्त पूर्वङ्गमात्र सर्वधर्माः । चित्ते परिशते सर्वधर्माः परिहाता भवन्ति ( शिक्षा, पृ. १२१ ) अर्थात् सब धर्म चित्त पुरःसर है । चित्त का ज्ञान होने पर सब धर्म परिज्ञात होते हैं । आर्यधर्मसंगीति सूत्र में कहा है-~-तदुच्यते । चित्ताधीनो धर्मो धर्माधीना बोधिरिति (शिक्षा० पृ. १२२)। अर्थात् चित्त के अधीन धर्म है, और धर्म के अधीन बोधि है। आर्यगंडव्यूह-सूत्र में भी कहा है-स्वचित्ताधिष्ठान सर्वयोधिसत्वचर्या स्वचित्ताधिष्ठानं सर्वसत्वारिपाकविनयः ( शिक्षा. पृ. १२२ ) अर्थात् बोधिसत्यचर्या अपने चित्त में अधिष्ठित है; सब सत्वों को संबोधि प्राप्त कराने की शिक्षा अपने चित्त में अधिष्ठित है। इसलिए, चित्त-नगर के परिपालन में कुशल होना चाहिए । चित्त-नगर का परिपालन संसार के सब विषयों से विरक्त होन होता है । ईर्ष्या, मात्सर्य और शठता के अपनयन से चित्तनगर का परिशोधन करना चाहिए। सर्वफ्रेश और मार ( = कामदेव ) की सेना का विमर्दन कर चित्त-नगर को दुर्योध्य तथा दुरासाद्य बनाना चाहिए । चित्तनगर के विस्तार के लिए सब सत्यों के प्रति महामैत्री प्रदर्शित करनी चाहिये। सर्व जगत् को आध्यात्मिक और बाह्य वस्तु का दान कर चित्त-नगर का द्वार खोलना चाहिये ।