पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उनकी तुलना दी गई है । पंचदश अध्याय में वैभाषिक-नय, षोडश में सौत्रान्तिक-नय, सप्तदश में असंग का विज्ञानवाद, अष्टादश में वसुबन्धु का विज्ञानवाद, ऊनविंश में शून्यवाद का विस्तार पूर्वक प्रामाणिक परिचय दिया गया है । पंचम खण्ड बौद्ध-न्याय का है । इस खएड के एक मात्र बीसवें अध्याय में अाकाशवाद और कालवाद पर महत्त्वपूर्ण विचार करके न्याय के प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थीनुमान का विवेचन किया गया है। इस प्रकार पाँच खण्डों में पालि और संस्कृत में वर्णित बौद्ध-धर्म और दर्शन का सालोपाङ्ग वर्णन है। बौद्ध-धर्म में जीवन के श्रादर्श के संबन्ध में प्राचीन काल से ही दो मत हैं । ये दोनों मत उत्तरोत्तर अधिक पुष्ट होते गये । प्रथम-मलिन वासना के क्षय का सिद्धांत है। इसका स्वाभाविक फल मुक्ति या निर्वाण है। दूसरा-वासना का शोधन है। इससे शुद्ध वासना का आविर्भाव होता है और देह-शुद्धि होता है। देह-शुद्धि के द्वारा विश्व-कल्याण या लोक- कल्याण का संपादन किया जा सकता है । अन्त में शुद्ध वासना भी नहीं रहती । उसका क्षय हो जाता है और उससे पूर्णत्व-लाम होता है। इसे ये लोग बुद्धत्व कहते हैं। इसे अापेक्षिक दृष्टि से परा-मुक्ति कह सकते हैं। उपयुक्त दोनों स्थितियों में काफी मतभेद है। संक्षेप में कह सकते हैं कि पहला श्रादर्श हीनयान का और दूसरा महायान का है । किन्तु यह भी सत्य है कि हीनयान में भी महायान का सूक्ष्म बीज निहित था। श्रावकगण अपने व्यक्तिगत दुःख का नाश या निर्वाण चाहते थे। प्रत्येक-बुद्ध का लक्ष्य दुःखनाश तथा व्यक्तिगत बुद्धत्व था। इसका अर्थ है स्वयं बुद्धत्व लाभ कर विश्व की दु:निवृत्ति में सहायता करना। प्राचीन समय में दस संघाजनी का नाश करके अईल की प्राप्ति करना लक्ष्य था। प्रचलित भाषा में इसे जीवन्मुक्ति का श्रादर्श कह सकते हैं । बौद्धमत में यह भी एक प्रकार का निर्वाण है। इसे मापाचशेष निर्वाण कहते हैं। इसके बाद स्कंध-निवृत्ति अर्थात् देहपात होने पर अनुपधि- शेष निर्वाण या विदेह-कैवल्य प्राप्त होता है। इस मार्ग में क्लेश ही अज्ञान का स्वरूप है । पातंजल योग-दर्शन में जैसे अविद्या को मूलक्लेश माना गया है, उसी प्रकार प्राचीन बौद्धों में क्लेश-निवृत्ति को ही मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ समझा जाता था । वस्तुतः क्लेश-निवृत्ति हो जाने पर भी किसी-किसी क्षेत्र में वासना की सर्वथा निवृत्ति नहीं होती, क्योंकि मलिन वासना का नाश होने पर भी शुद्ध वासना की संभावना रहती ही है। इसमें संदेह नहीं कि जिसमें शुद्ध वासना नहीं है,उसके लिए. क्लेश-निवृत्ति ही चरम लक्ष्य है। परन्तु पूर्णत्व या बुद्धत्व का श्रादर्श इससे बहुत उच्च है । बोधिराव से भिन्न दूसरा कोई बुद्धत्व-लाभ नहीं कर सकता । शुद्ध वासना वस्तुतः परार्थ-वासना है। बोधिसत्व इस बासना से अनुप्राणित होकर क्रमशः बुद्धत्व प्राप्त करने का अधिकारी होता है । बोधिसत्र की अवस्था भी एक प्रकार की शान की अवस्था है । परन्तु यह क्लिष्ट नहीं, अक्लिष्ट है । बोधिपच की भिन्न भिन्न भूमियों को क्रमशः भेद करके आगे