पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८०

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1११ बौर-धर्म-पर्शन चित्त-नगर की शुद्धि से सब प्रावरण नष्ट होते हैं (शिक्षा० १२२-१२९) । इसलिये यह व्यवस्थित हुअा कि चित्त-परिफर्म ही बोधिसत्व-शिक्षा है। जब चित्त अचपल होता है, तभी उसका परिकर्म होता है। शम से चित्त अचल होता है | जो निरंतर प्रत्यवेक्षा नहीं करता और जिसमें स्मृति का अभाव है, उसका चित्त चलायमान होता है। पर स्मृति और संप्रजन्य से जिसकी बाह्य चेष्टानों का निवर्तन हो गया है, उसका चित्त इच्छानुसार एक प्रालंबन में ही निबद्ध रहता है। इसलिये स्मृति को मनोद्वार से कभी न हटावे। यदि प्रमाद-वश स्मृति अपने उचित स्थान से हट जाय तो उसको फिर से अपने स्थान पर लौटा कर प्रारोपण करे । स्मृति की उत्पत्ति ऐसे लोगों के लिये सुकर है, जो प्राचार्य का संवास करते हैं, जिनके हृदय में उनके प्रति अादर का भाव है, और जो यनशील है। जो सदा यह ध्यान करता है कि बुद्ध और बोधिसत्वाण समस्त वस्तु-विषय का अप्रतिहत ज्ञान रखते हैं, सब कुछ उनके सामने है, मैं भी उनके सम्मुख हूँ, वह शिक्षा में श्रादरवान होता है, और अयोग्य कर्म के प्रति लज्जा करता है। बब चित्त की रक्षा के लिये स्मृति मनोद्वार पर द्वारपाल की नाई अवस्थित होती है, तब संप्रचन्य बिना प्रयत्न के उत्पन्न होता है। अतः स्मृति ही संप्रजन्य की उत्पत्ति और स्थैर्य में कारण है। जिसका चित्त संप्रजन्य से रहित है, उसको वस्तु का उसी प्रकार स्मरण नहीं रहता जिस प्रकार सच्छिद्र कुभ का जल ऊपर भरा जाता है, और नीचे से निकल जाता है। संप्रबन्य के प्रभाव से संचित कुशल धन भी विलुम हो जाता है, और मनुष्य दुर्गति को प्राप्त होता है । लेश-तस्कर छिद्रान्वे रण में तत्पर होते हैं, और प्रवेश मार्ग पाकर हमारे कुशल धन का अपहरण करते हैं, और सद्गति का नाश करते हैं। इसलिये चित्त की सदा प्रत्यवेक्षा करे, और इसकी प्रत्यवेक्षा करे कि मन कहा जाता है, पहले अवलम्बन में निबद्ध है, अथवा कहीं अन्यत्र चला गया है। ऐसा प्रयत्न करे जिसमें मन समाहित हो । अनर्थ विवर्जन के लिए सदा काष्ठवत् रहना चाहिए । बिना प्रयोजन नेत्र-विदेर न करना चाहिए | दृष्टि सदा नीचे की ओर रखे, पर कभी कमी दृष्टिको विश्राम देने के लिए अपने चारों ओर भी देखे। जब कोई समीप श्रावे, तब उसकी छाया मात्र के अवगत होने से उसका स्वागत करे, अन्यथा श्रवचा करने से अकुशल की उत्पत्ति होती है। भय-हेतु जानने के लिए मार्ग में बारम्बार चारों ओर देखे। अच्छी तरह निरूपण कर श्रमसर हो अथवा पीछे अपसरण करे । इस प्रकार सब अवस्थाओं में बुद्धिपूर्वक कार्य करे, जिसमें उपधात का परिहार और प्रामभाव की रक्षा हो । प्रत्येक काम में शरीर की अवस्था पर ध्यान रखे, बीच-बीच में देखता रहे। देह की मिन अवस्था होने पर उसका पूर्ववत् अवस्थापन करे। नानाविध प्रलाप सुनने तथा कुतूहल देखने के लिए उत्सुक न हो। निष्प्रयोजन नख-दण्डादि से भूमि-फलकादि पर रेखा न खींचे। कोई निरर्थक कार्य न करे । जब चित्त मान, मद या कुटिलता से दूपित हो, तब उसको स्थिर करे । जब चित्त में अनेक गुणों के अतिशय प्रकाशन की इच्छा प्रकट हो, या दूसरो के छिद्रान्वेषण की आकांक्षा का उदय हो, या दूसरे से कलह करने के लिए चित्त चला- '.