पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८२

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पौर-धर्मनान सदर्म सेवक काय को थोड़े के लिये कष्ट न दे, अन्यथा महती अर्थ-राशि की हानि होगी। क्षुद्र अवसर पर अपने जीवन का परित्याग न करे, अन्यथा एक सत्व के अर्थ-संग्रह के लिये महान् अर्थ की हानि संपन्न होगी। सब सत्त्वों के लिए प्रापभाव का असा पहले ही हो चुका है। केवल अकाल-परिभोग से उसकी रक्षा करनी है । इस प्रकार उपाय-कौशल से विहार करता हुआ बोधिसत्व बोधि-मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता। शान्तिपारमिता-अनेक प्रकार से शील-विशुद्धि का प्रतिपादन किया जा चुका है। अात्मभाव, पुण्य तया भोग की रक्षा और शुद्धि का भी प्रतिपादन किया गया है। अब क्षान्ति- पारमिता का उल्लेख करते है। शांतिदेव कारिका में कहते हैं:- क्षमेत भुतमेषेत संश्रयेत वनं ततः ! समाधानाय युज्येत भावयेदशुभादिकम् ॥ शिक्षासमुच्चय में इस कारका के प्रत्येक पद को लेकर व्याख्या की गयी है। मनुष्य में क्षान्ति होनी चाहिये। बो अक्षम है, वह श्रुतादि में खेद सहन करने की शक्ति न रखने के कारण अपना वीर्य नष्ट करता है । अखिन्न होकर श्रुत की इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि बिना ज्ञान के समाधि का उपाय नहीं जाना जाता, और जैश-शोधन का उपाय भी अषिगत नहीं होता। ज्ञानी के लिए भी संकीर्णचारी होने से समाधान दुष्कर है; इसलिए वन का प्राश्रय ले। वन में भी बिना चित्त-समाधान के विक्षेप का प्रशमन नहीं होता। इसलिये समाधि करे। समाहित-चित्त होने पर भी बिना लेश शोधन के कोई फल नहीं है; इसलिए, अशुभ श्रादि की भावना करे। जिस प्रकार अग्निकण तृणराशिको दग्ध करता है। उसी प्रकार द्वेष सहसों कल्प के उपार्जित शुभकर्म को तथा बुद्ध-पूजा को नष्ट करता है । द्वैप के समान दूसरा पाप नहीं है। और क्षान्ति के समान कोई तप नहीं है। इसलिए. नाना प्रकार से क्षान्ति का अभ्यास करन चाहिये | जिसके हृदय में द्वेषानल प्रचलित है, उसको शान्ति और सुख कहाँ ! उसको न नींद आती है, और न उसका चित्त सुखी होता है । वह लाम-सत्कार से जिनका अनुनय करता है और जो उसके अश्रित हैं, वे भी उसका विनाश चाहते हैं, उसके मित्र भी उससे त्रास खाते हैं। दान देने पर भी उसकी कोई सेवा.. नहीं करता; संक्षेप में क्रोधी कभी सुखी नहीं होता। अतः मनुष्य द्वेष के परित्याग के लिए यत्नवान् होना चाहिये। जो क्रोध का नाश करता है, वह इस लोक तथा परलोक, दोनों में, सुखी रहता है ? द्वेष के उपघात के लिए उसके कारण का उपयात करना चाहिये। जो हमारी कल्पना में हमारे सुख का साधन है, वह इष्ट है; और जो इसके विपरीत है, वह अनिष्ट है। अनिष्ट के संपादन से अथवा इष्ट के उपघात से मानस-दुःख की उत्पत्ति होती है। इसलिए जो अनिष्टकारी है, अथवा इष्ट-विरोधी है, उसके प्रति देष अपर होता है। दौर्मनस्यरूपी भोजन पाकर द्वेष बलवान होता है, इसलिए देष के नाश की इच्छा रखता हुअा बोधिसत्त्व सबसे पहले दौर्मनस्य का समूल उपनात करे, क्योंकि द्वेष का उद्देश्य