पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बब ही है। इस प्रकार द्वेष के दोषों को भलीभांति जानकर द्वेष के विपक्षल्प शान्ति का उत्पादन करे । क्षान्ति तीन प्रकार की है:-१. दुःखाधिवासना क्षान्ति२. परापकार मर्षण क्षान्ति और ३. धर्मनिध्यान तान्ति । १. दुःखाधिवासना दान्ति वह है, जिसमें अत्यन्त अनिष्ट का आगम होने पर भी दौर्मनस्य न हो । दौर्मनग्य से कोई लाभ नहीं है । वह केवल पुण्य का नाश करता है । अतः दौमनस्य के प्रतिपक्षरूप 'मुदित।' की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये । दुःख पड़ने पर प्रमुदित-चित्त रहना चाहिये। चित्त में क्षोभ या किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न होने देना चाहिये । दौमनस्य से कोई लाभ नहीं है, वरंच प्रत्यक्ष हानि ही है। यदि इष्ट-विधात का प्रतीकार हो, तब भी दौमनस्य व्यर्थ और निष्प्रयोजन है। ऐसा विचार कर दौमनस्य का परित्याग ही श्रेष्ठ है। प्रतीकार होने पर भी सुन्ध-व्यक्ति मोह को प्राप्त होता है, और क्रोध से मूर्छित हो जाता है, उसको यथार्थ अयथार्थ का विवेक नहीं रह जाता । उसका उत्साह मंद पड़ जाता है और उसे आपत्तियां घेर लेती है। इसलिए प्रतीकार भी असफल हो जाता है । इसी से कहा है कि दौर्मनस्य निरर्थक और अनर्थवान् है, पर अभ्यास से दुःख अबाधक हो जाता है । अभ्यास द्वारा दौमनस्य का त्याग हो सकता है । अभ्यास से दुष्कर भी सुकर हो जाता है। सुख अत्यन्त दुर्लभ है, दुःख सदा सुलभ है । दुःख का सर्वदा परिचय मिलता रहता है । इसलिए उसका अभ्यास कठिन नहीं है। निस्तार का उपाय भी दु.ख ही है, इसलिए दुःख का परिग्रह युक्त ही है । चित्त को दृढ़ करना चाहिये, और कातरता का परित्याग करना चाहिये । बोधिसत्व तो अपने को तथा दूसरों को बुद्धत्व की प्राप्ति कराने का बीड़ा उठा चुका है। उसको तो कदापि कातर न होना चाहिये । यदि यह कहो कि अल्प दुःख तो किसी प्रकार सहा जा सकता है, पर कर-चरण- शिरश्छेदनादि दुःख अथवा नरकादि का दुःख किस प्रकार सहा जा सकेगा । ऐसी शंका अनु- चित है, क्योंकि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो अभ्यास द्वारा अधिगत न हो सके । अल्पतर व्यथा के अभ्यास से महनी व्यथा भी सही जा सकती है। अभ्यासवश ही जीयों को दुःख-सुख का शान हो सकता है, इसलिए. दुःख के उत्पाद के समय सुख-संझा के प्रत्युपस्थान का अभ्यास करने से सुख-संशा ही का प्रवर्तन होता है। इससे सर्वधर्मसुखाकान्त नाम की समाधि का प्रतिलाभ होता है । इस समाधि के लाभ से वोधिसत्व सब कार्यों में सुखवेदना का ही अनुभव करता है। दुत्पिपासा श्रादि वेदना को और मशक-दंश श्रादि व्यथा को निरर्थक न समझना चाहिये । इन मूदु व्यथाओं के अभ्यास के कारण ही हम महती व्यथा के सहन करने में समर्थ होते हैं। शीतोष्ण, वृष्टि, वात, मार्गक्लेश, व्याधि आदि का दुःख सुकुमार-चित्तता के कारण बढ़ता है। इसलिए चित्त को दृढ़ रखना चाहिये। हम देखते है कि कोई भी संग्राम- भूमि में अपना रक्त बहता देखकर और भी वीरता दिखलाते हैं, और कोई ऐसे हैं कि दूसरे का रुधिर-दर्शन होने से ही मूर्छा को प्राप्त होते हैं। यह चित्त की दृढ़ता और कातरता के