पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८४

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बौर-धर्म-दर्शन 1 कारण है ? इसलिए. बो दुःख से पराजित नहीं होता, वही व्यथा को अभिभूत करता है । दुःख में भी परिष्त को चित्तक्षोभ न करना चाहिये, क्योंकि उसने जैश-शत्रुओं से संग्राम छेड़ रखा है, और संग्राम में व्यथा का होना अनिवार्य है। जो शत्रु के सम्मुख जाकर उसके प्रहारों को अपने वक्षःस्थल पर धारण करते हुए समर-भूमि में विजयी होते हैं, वे ही सच्चे विजयी और शूर है, शेष मृतमारक हैं । दुःख का यह भी गुण है कि उससे यौवन-धनादि विषयक मद का भंग होता है, और संसार के सत्वों के प्रति करुणा, पाप से भय तथा बुद्ध में श्रद्धा उत्पन्न होती है । पित्तादि दोपत्रय के प्रति हम कोप नहीं करते, यद्यपि व व्याधि उत्पन्न कर सब दुःखों के हेतु होते हैं । इसका कारण यह है कि हम समझते हैं कि वे अचेतन हैं, और बुद्धिपूर्वक दुःखदायक नहीं है । इसी प्रकार मचेतन भी कारणवश ही कुपित होते हैं । पूर्वकर्म के अप- राध से कुपित होकर वे दुःखदायक होते हैं। उनका प्रकोप भी कारणाधीन है। इसलिए उन पर भी कोप नहीं करना चाहिये। जिस प्रकार पित्तादि की इच्छा के बिना शूल अवश्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार बिना इच्छा के कारण-विशेष से क्रोध उत्पन्न होता है। कोई मनुष्य क्रोध करने के लिए, ही इच्छापूर्वक क्रोध नहीं करता, और न क्रोध विचारपूर्वक उत्पन्न होता है मनुष्य जो पाप या विविध अपराध करता है, वह प्रत्यय-बल से ही करता है। उनकी स्वतन्त्र प्रवृत्ति नहीं होती। प्रत्यय-सामग्री को यह चेतना नहीं रहती कि मैं कार्य की उत्पत्ति कर रही हूँ; और कार्य को भी यह चेतना नहीं रहती, कि अमुक प्रत्यय-सामग्री द्वारा मैं उत्पन्न हुअा हूं । यह जगत् प्रत्ययतामात्र है। सर्वधर्म हेतु-प्रत्यय के अधीन है । अतः किसी वस्तु का संभव स्वतन्त्र नहीं है। सांख्य के मत में प्रधान और वदान्त के मत में आत्मा स्वतन्त्र है, पर यह उनकी कल्पनामात्र है । यदि प्रधान या अात्मा विषय में प्रवृत्त होते है, तो उनकी निवृत्ति नहीं होती, अन्यथा अनित्यत्व का प्रसंग होगा । यदि वह नित्य और अचेतन है, तो स्पष्ट ही अक्रिय है, क्योंकि यद्यपि उसका प्रत्ययान्तर से संपर्क भी हो, तब भी निर्विकार अर्थात् पूर्व स्वभाव से च्युत न होने से उसमें किसी प्रकार की क्रिया का होना संभव नहीं है। जो क्रिया-काल तथा क्रिया-काल एक रूप है, वह क्रिया का कौन सा अंश संपादित करता है ? अात्मा और क्रिया में संबन्ध का अभाव है। यदि यह कहा जाय कि क्रिया ही संबन्ध है, तो इसमें कोई निमित्त नहीं ज्ञात होता । इस प्रकार सब बाह्य तथा आध्यात्मिक वस्तुएँ परायत्त हैं, स्वायत्त नहीं । हेतु भी स्वहेतु-परतन्त्र है। इस प्रकार अनादि संसार-परम्परा है। यहां स्वशिता कहाँ संभव है ? परमार्थटि में कौन किसके साथ द्रोह करता है, जिसके कारण अपराधी के प्रति द्वेष किया जाय ? अतः जो चेष्टा और व्यापार से रहित है, उन पर कोप करना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। यह कहा जा सकता है कि जब कोई स्वतंत्र नहीं है, तो द्वेष श्रादि का निवारण भी संभव नहीं है; सब वस्तुजात प्रत्यय-सामग्री के बल से उत्पन्न होते हैं; कौन निवारण करता है जब कि कोई स्वतंत्र का नहीं है । और किसका निवारण किया जाता है, जब कि किसी वस्तु की स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं होती ? अतः धादि से निवृत्ति का उपाय भी व्यर्थ है, क्योंकि सब कुछ