पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशम मायाय परवश है, स्ववश नहीं है; ऐसी शंका करना उचित नहीं है । यद्यपि सर्व वस्तुजात व्यापार- रहित है, तथापि प्रत्यय-बल से उत्पन्न होने के कारण परतन्त्र है । अविद्यादि प्रत्यय-बल से संस्कारादि उत्तरोत्तर कार्य-प्रवाह का प्रवर्तन होता है, और पूर्व-पूर्व की निवृत्ति से निपरीन होता है । इसलिए, दुःख की निवृत्ति अभिमत है। द्वपादि पार प्रवृत्ति-निवारणरूपी प्रत्यय- बल से अभ्युदय-निःश्रेयफल की उत्पत्ति होती है। इसलिए यदि शत्रु या मित्र कुछ अपकार करें तो यह विचार कर कि ऐसे ही प्रत्यय-बल से उसकी ऐसी प्रवृत्ति हुई है, दु.ख से संतप्त न होना चाहिये। अपनी इच्छामात्र से इष्टप्राप्ति और अनिष्टहानि नहीं होती; हेतुवश ही होती है । यदि इच्छामात्र से अभीष्ट की सिद्धि होती तो किमी को दु.ख न होता, क्योंकि दुःख कोई नहीं चाहता, सभी अपना सुख चाहते हैं । २. दूसरे के किए हुए. अपकार को सहन करना, और उसका प्रत्यपकार न करना, परापकारमर्पण क्षात्ति है । प्रमादवश, क्रोधवश, अथवा अगम्य-परदार-धनादि-लिप्साश, सत्व अनेकानेक कष्ट उठाते हैं, पर्वतादि से गिरकर अथवा विष खाकर, श्रात्महत्या कर लेते है अथवा पापाचरण द्वारा अपना विनाश करते हैं | जब अंशदश सत्य अपने आपको पीड़ा पहुँचाते हैं. तब पराये के लिए. अपकार से विरत कैसे हो सकते हैं। अतः ये जीव कृपा के पात्र है, न कि द्वप के स्थान | लेश से उन्मत्त हो परापकार द्वारा श्रात्मधात में प्रवृत्त है, अतः ये दया के पात्र हैं। इनके प्रति क्रोध कैसे उत्पन्न हो सकता है ? यदि दूसरों के साथ उपद्रव करना वालकों का म्यमा है तो उनपर कोष करना उपयुक्त नहीं । अग्नि का स्वभाव जलाना है, यदि यह दहन-निया छोड़ दे तो तत्स्वभावता की हानि का प्रसंग उपस्थित हो । यह विचार कर कोई अग्नि पर कोप नहीं करता। यदि यह कहा जाय कि सत्व दुष्ट स्वभाव के नहीं हैं, वरंच सरल वाक के हैं, और यह दो श्राम नुक है; तब भी इनपर कोप करना अयुक्त होगा | जिस प्रकार धूम से अछिन्न शाकाश के प्रति क्रोध करना मूर्खता है, क्योंकि आकाश का खभाव निर्मल है, वह प्रकृति से परिशुद्ध है, कटुता उसका सभाव नहीं है। इसी प्रकार प्रकृति-शुद्ध सत्वों पर आगन्तुक दो के लिए क्रोध करना मूर्खता है। कटुता अाकाश का स्वभाव नहीं है, धूम का है। इसलिए, धूम से दूर करे न कि श्राकाश से । अतः सत्वों पर क्रोध न कर दोपों पर क्रोध करना चाहिए । दु.ख का जो प्रधान कारण है, उसी पर कोप करना चाहिए, न कि प्रधान कारण पर । शरीर पर दण्ड-प्रहार होने से जो दुःख वेदना होती है, उसका मुख्य कारण दण्ड ही प्रतीत होता है । यदि कहा जाय कि दण्ड दूसरे को प्रेरणा से दुःख वेदना उत्पन्न करता है, इसमें दण्ड का क्या दोष है ? अतः दण्ड के प्रेरक से द्वेष करना युक्त होगा, तो यह अधिक समुचित होगा कि दण्ड-प्रेरक के प्रेरक द्वेष से द्वेष किया जाय । मुख्य दंडादिकं हित्वा नरके यदि कुप्यते । द्वेषेण प्रेरित. सोपि देषे द्वेषोऽस्तु मे वर ।। [बोधि० ६।४१] बोधिसत्य को विचार करना चाहिये कि मैंने भी पूर्व जन्मों में सत्यों को ऐसी पीड़ा पहुँ. चायी थी, इसलिए यह युक्त है कि ऋणपरिशोधन-न्यायेन मेरे साथ भी दूसरा अपकार करे ।