पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८६

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बौद-धर्म-दर्शन अपकारी का शस्त्र और मेरा शरीर दोनों दुःख के कारण है। उसने शस्त्र ग्रहण किया है और मैंने शरीर ग्रहण किया है । यदि कारणोपनायक पर ही क्रोध करना है तो अपने ऊपर भी क्रोध करना चाहिए। जो कार्य की अभिलाषा नहीं करता, उसको उसके कारण का ही परिहार करना चाहिए। पर मेरी तो उलटी मति है। मैं दुःख नहीं चाहता, पर दुःख के कारण शरीर में मेरी श्रासक्ति है। इसमें अपराध मेरा है। दूसरे पर कोप करना व्यर्थ है, दूसरा तो सहकारीमात्र है। प्रामवध के लिए मैंने स्वयं शस्त्र ग्रहण किया है, तो दूसरे पर क्यों कोप करूँ, नरक का असिपत्र-वन और वहाँ के पक्षी जो नरक में मेरे दुःख के हेतु हैं, वे मत्कर्म- जनित है। इसमें दूसरा कारण नहीं है। इसी प्रकार दूसरा यदि मेरे साथ दुष्ट-व्यवहार करता है, और उससे मुझको दुःख उत्पन्न होता है, तो उसमें भी मेरा कर्म ही हेतु है। ऐसा विचार कर कोपन करना चाहिए । मैंने पहले दूसरों के साथ अपकार किया, इसलिए मेरे कर्म से प्रेरित होकर वे भी अपकार करते है, और नरक में निवास करते हैं; इसलिए मैंने ही इनका माश किया। इन्होंने मेरा विधात नहीं किया। इस प्रकार चित्त का बोध करना चाहिए । इन अपकारियों के निमित्त दान्ति-धारण करने से पूर्वजन्मकृत परापकार जनित पाप दुःखानुभव द्वारा क्षीण हो जाता है, और मेरे निमित्त इनका नरक-ामन होता है, जहां इनको दुःसह दुःख का अनुभव करना होता है । इस प्रकार मैं ही इनका अपकारी हूँ और यह मेरे उपकारी है। फिर उपकारी के प्रति मेरी अपकार की बुद्धि क्यों है ? मैं यदि अपकारी होते हुए भी किसी उपाय-कौशल से, यथा प्रत्यपकार-निवृचि-निष्ठा द्वारा नरक न जाऊँ, और अपनी रक्षा करू, तो इसमें इन उपकारियों को क्या क्षति है । यदि ऐसा है तो उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करनी चाहिए, और अपकार निवृत्ति द्वारा अपनी रक्षा न करनी चाहिए। पर प्रत्यपकार करने से भी इनकी रक्षा नहीं होती। इनको अपने पाप कर्म का फल भोगने के लिए, नरक में अवश्य निवास करना होगा, और ऐसा करने से मैं बोधिसत्वचर्या से भ्रष्ट हो जाऊँगा। कहा है- सर्वसत्वेषु न मैत्रचित्तं मया निक्षेप्तव्यम् । अन्तशो न दग्धस्थूणायामपि प्रतिधचित्त- मुत्पादयितव्यम् । इसके अतिरिक्त मैं सब सखों की रक्षा करने में अशक्य हो जाऊँगा, और इस प्रकार वे दुर्गति में पड़ेंगे। ३. अब धर्म-निध्यान क्षान्ति क्तलाते है। दुःख दो प्रकार का है--कायिक और मानसिक । इसमें मानसिक दुःख परमार्थतः नहीं है, क्योंकि मन अमूर्त है, और इस लिए मन पर दण्डादिद्वारा प्रहार शक्य नहीं है । पर इस कल्पना द्वारा कि यह शरीर मेरा है,शरीर को दुःख पहुँचने से चित्त भी दुःखी होता है । पर अयश और परुष-वाक्य शरीर का उपपात नहीं करते। फिर किसलिए इनसे चित्त कुपित होता है। यदि यह कहा जाय किसान लोग मेरे अयश इत्यादि की बात सुनते हैं, तो वे मुझसे अप्रसन्न होते है और उनकी अप्रस-