पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८७

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दशम अध्याय नता मुझको अभीष्ट नहीं है । पर यह विचार कर कि लोक का अप्रसाद न इस लोक में मेरा अनर्थ संपादन कर सकता है, न जन्मांतर में, इस लिये लोक की अप्रसन्नता में अभिनिवेश न करना चाहिये। यदि यह सन्देह हो कि लाभ का विघात होगा, लोग मुझसे विमुख हो जायेंगे और पिएडपातादि लाभ-सत्कार से मुझको वंचित रखेंगे, तो यह विचार करना चाहिये कि लाम विनश्वर होने के कारण नष्ट हो जायगा, पर पाप सदा स्थिर रहेगा। नक्ष्यतीहैव मे लामः पापं तु स्थास्यति ध्रुवम् [ बोधि० ६,५५] लाभ के अभाव में आज ही मर जाना अच्छा है, पर परोपकार द्वारा लाभ-सत्कार पाकर चिरकाल तक मिथ्या जीवन व्यतीत करना बुरा है, क्योंकि चिरकालतक जीवित रहने में भी मृत्यु का दुःख वैसा ही बना रहता है । एक स्वप्न में १०० वर्ष का सुख अनुभव कर जागता है, और दूसरा मुहूर्त के लिए सुखी होकर जागता है । स्वप्नोपलब्ध सुग्व जाग्रत अवस्था में लौट नहीं श्राता । उसका स्मरणमात्र अवशिष्ट रह जाता है । जाग्रत अवस्था में उपभुक्त सुख भी विनष्ट होकर नहीं लौटता । इसी प्रकार मनुष्य चाहे चिरजीवी हो या अल्पजीवी, उसका उपभुक्क सुख मरण समय में विनष्ट हो जाता है । प्रचुरतर लाभ-सत्कार पाकर और दीर्घकाल पर्यन्त अनेक सुखों का उपभोग करके भी अन्त में खाली हाथ और नग्नशरीर जाना होता है, मानों किसी ने सर्वस्व हर लिया हो। लब्ध्वापि च बहूँल्लाभान् चिरं भुक्त्वा सुखान्यपि । रिकहस्तश्च नग्नच यास्यामि मुपितो यथा । [ बोधि० ६,५६ ] यदि यह विचार हो कि लाम द्वारा चीवरादि का विधात न होने से चिरकाल तक जीवित रहकर हम पापक्षय और पुण्य-संनय करेंगे, तो यह भी स्मरण रहे कि लाभ के लिए. द्वेष करनेवाले का सुकृत नष्ट हो जाता है, और अक्षान्ति से पापराशि की उत्पत्ति होती है। पापक्षयं च पुण्यं न लाभाञ्जीवन् करोमि चेत् । पुण्यक्षयश्च पापं च लाभार्थ क्रुध्यतो ननु ॥ [ बोधि० ६,६.] जिसके लिए मेरा जीवन है, यदि वही नष्ट हो जाय तो ऐसे निन्दित जीवन से क्या लाभ १ बोधिसत्य का जीवन इतर जन के जीवन के सदृश निष्प्रयोजन नहीं है। उसका जीवन पाप के क्षय के लिए, और पुण्य की अभिवृद्धि के लिए है । यदि यह उद्देश्य फलीभूत न हो और सुकृत का क्षय हो तो ऐसा अशुभ जीवन व्यर्थ है | यदि यह कहो कि जो मेरे गुणों को छिपाकर केवल दोषों का आविष्करण करता है, उससे मेरा द्वेष करना युक्त है, क्योकि वह सत्वों का नाश करता है, तो जब दूसरे किसी का कोई अयश प्रकाशित करता है, तो उसके प्रति तुमको क्यों कोप उत्पन्न नहीं होता है जो दूसर की निन्दा करता है, उसका तो तुम क्षमा कर देते हो, उसके प्रति क्रोध नहीं करते, तब अपनी निंदा करनेवाले को भी क्षमा क्यों नहीं करते। जो प्रतिमा, स्तूप, और सद्धर्म के निंदक या नाशक हो, उनके प्रति भी भदावश द्वेष करना युक्त नहीं है, इससे बुढादि को कोई पीड़ा नहीं पहुंचती । यदि कोई गुरुबन, सहोदर