बौद-धर्म-दर्शन भाई, तथा अन्य बन्धुवर्ग का भी अपकार करे तो उसपर भी क्रोध न करना चाहिये। एक अजान के वश हो, दूसरे के साथ अपकार करता है, अथवा दूसरे की निन्दा करता है, तो दूसरा अपकारी पर मोहवश क्रोध करता है। इनमें से किसको अपराधी और किसको निर्दोष कहें ? दोनों का दोष समान है। पहले ऐसे कर्म क्यों किये जिनके कारण दूसरों द्वारा पीड़ित होना पड़ता है १ सब अपने कर्म के अधीन है। कर्मफल के निवर्तन में कोई समर्थ नहीं है, ऐसा विचार कर कुशल-कर्म के सम्पादन में यत्नवान् होना चाहिये, जिसमें सन्मार्ग में प्रवेश कर सब सत्व द्रोह छोड़कर एक दूसरे के हित-सुख-विधान में तत्पर हो। जिस प्रकार जब एक घर में भाग लगती है और वह भाग फैलकर दूसरे घर में जाती है, और वहाँ के तृणादि में लगती है, तब शीघ्र उस तृण आदि को हटाकर उसकी रक्षा का विधान किया जाता है, उसी प्रकार चित्त जिम वस्तु के संग से द्वेषाग्नि से दह्यमान हो, उस वस्तु का उसी क्षण परित्याग करना चाहिये। जिसको मारण दण्ड मिला है, यदि वह हस्तछेदमात्रानन्तर मुक्त कर दिया जाय तो इसमें उसका स्पष्ट लाम है; क्षति नहीं है। इसी प्रकार यदि मनुष्य को दु:ग्य का अनुभव कर नरक-दुःख से छुटकारा मिले, तो इसमें सुम्बी होना चाहिये। क्योंकि नरक-दुग्न की अपेक्षा मनुष्य-दुःख कुछ मी नहीं है । यदि इतना भी दुख नहीं महा जा सकता, तो उस क्रोध का निवारण क्यों नहीं करते, जिसके कारण नरक की यथा भोगनी पड़ती है ? इसी क्रोध के निमित्त अनेकसहस बार मुझको नरक व्यथा सहनी पड़ी है । इससे न मैं ने अपना उपकार किया और न दूसरों का। इसलिए, सारा दुःखानुभव निष्प्रयोजन ही हुा । पर मनुष्य-दुःग्य नरक-दुःख के समान कठोर नहीं है, और यह इसके अतिरिक्त बुद्धन्व का साधन भी है । अतः इस दुःख में अभिरुचि होनी चाहिये, क्योंकि यह संसार के मुम्ब का प्रशमन करेगा। यदि किसी गुणी के गुणों का वर्णन कर दूसरे सुखी होते हैं तो तुम भी उसका गुणानुवाद कर अपने मन को क्यों नहीं प्रसन्न करते १ ईयानल की ज्वाला से क्यों चलते हो ? यह सुख अनिन्ध है, और सुख का कारण है। इसमें सबसे बड़ा गुण यह है कि मत्वों के प्रावर्जन का यह सर्वोत्तम उपाय है। यदि यह कहो कि पराण की गुण-प्रशंसा मुझको प्रिय नहीं है, क्योंकि इसमें दूसरे को सुख प्राप्त होता है, तो इससे बड़ा अनर्थ सम्पादित होगा। इससे ऐहिक और पारलौकिक दोनों फल नष्ट हो जायेंगे । दूसरे की सुग्य-संपत्ति को देखकर कुड़ना अनुचित है। जब अपने गुण का संकीर्तन सुन तुम यह इच्छा रखने हो कि दूसरे प्रसन्न हो, तो क्यों दूसरों की प्रशंसा सुनकर तुम स्वयं प्रसन्न नहीं होते ? तुमने इसलिए. बोधिचित्त का ग्रहण किया है कि बुद्धत्व के अनुपम लाभ द्वारा सत्र सल्यों को समस्त मुग्व-संपत्ति का उपभोग करायेंगे, तो फिर यदि वे स्वयं सुख प्राप्त करें तो इससे क्यों श्रप्रसन्न होते हो ? दूसरे की सुख-संपत्ति देख तुम्हारी यह असहिष्णुता क्यों है ? तुम तो यह श्राकांक्षा राबते हो कि सत्वों को बुद्धत्व प्राप्त कराधेगे । जिसमें वे त्रैलोक्य में पूजे जायें, फिर उनके स्वल्प लाभ-सत्कार को देखकर क्यों जलते ? त्रैलोक्यपूज्यं बुद्धत्वं सत्त्वानां किल वाञ्छसि । सत्कामित्वरं दृष्ट्वा तेषां किं परिवह्यसे । [बोधि० ६,८१]