पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८९

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दशम अध्याय सब सत्व तुम्हारे श्रात्मीय हैं। उनके पोपण का भार तुमने अपने ऊपर लिया है। जो उनका पोषण करता है, वह तुम्ही को देता है। ऐसे पुरुष को पाकर तुम क्रोध करते हो। उनको सुखी देख तुमको सुखी होना चाहिये। यदि यह कहो कि बुद्धत्व ही के लिए मैंने जगत् को आमन्त्रित किया है, न कि अन्य सुख के लिए. तो यह उपयुक्त नहीं है । जो सत्वों के लिए बुद्धत्व की इच्छा रखता है, वह उनके लिए. लौकिक तथा लोकोत्तर समस्त वस्तुजात की इच्छा रखता है । जो दूसरे की सुखसम्पत्ति को देवकर क्रुद्ध होता हो और दूसरे का लाभ- सत्कार नहीं देख सकता हो, उसकी बोधिचित्त की प्रतिज्ञा मिथ्या । यदि उसने लाभ-सत्कार न पाया तो दान की वस्तु दानपति के घर में रहती है, वह वस्तु किमी अवस्था में भी तुम्हारी नहीं हो सकती। लाभ-सत्कार का पानेवाला क्या उस पूर्व-जन्मकृत पुण्य का निवारण करे जिसके कारण उसको लाभ-सत्कार प्राप्त होता है, अथवा दाता का निवारण करे ? अथवा अपने गुणों का निवारण करे जिनसे प्रमन्न हो दानात लाभ-सत्कार का दान करता है ? कहो, किस प्रकार से तुम्हारा परितोष हो ? तुम अपने किये हुए पापों के लिए शोक नहीं करते, पर दूसरे के पुण्य की ईर्ष्या करते हो । यदि तुम्हारी अभिलावामात्र से तुम्हारे शत्रु का अनिष्ट सम्पादित हो तो उससे क्या फल मिलेगा ? बिना हेतु के केवल तुम्हारी अभिलाषा से ही किसी का अनिष्ट नहीं हा सकता । यदि हो भी तो दूसरे के दुःश्व में नुमको क्या मुत्र मिलता है ? यदि दूसरे को दुःखी देखना ही तुम्हारा अभिप्राय हो, और इसी में अपना सुख मानते हो तो इससे बढ़कर तुम्हारे लिए क्या अनर्थ हो सकता है ? यम के दूत तुमको ले जाकर कुम्भीपाक नरक में पकायेंगे । स्तुति के विधात से दुःख उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं है । स्तुति, यश अथवा सत्कार से न पुण्य की वृद्धि होती है, न श्रायु की, न बल की, न श्रारोग्य लाभ होता है और न शरीर-मुख प्राप्त होता है । बुद्धिमान् पुरुष इन पांच प्रकार के पुरुषार्थों की कामना करता है। यश के लिए लोग अपने धन और प्राण को भी तुच्छ समझते हैं। यश के लिए, मरने पर उसका मुग्न किसको प्राम होता है ? केवल अक्षरमात्र हैं । तो क्या अक्षर खाये जायेंगे ? यह बालक्रीड़ा के समान है। जिस प्रकार एक बालक धूलिमय गृह बनाकर परम परितोष से क्रीडा करता है, पर उसके भग्न हो जाने पर अत्यन्त दुःखी हो करुणस्वर से प्रार्तनाद करता है; उसी प्रकार उस व्यक्ति की दशा होती है जो स्तुति और यशरूपी खिलौनों से खेलता है और उनके विघात से दुःखी होता है । यदि कोई मुझसे या किसी दूमरे से प्रीति करता है, तो मुझे क्या ? यह प्रीति-सुख उसी को है । इसमें मेरा किंनिमात्र मी भाग नहीं है । यदि दूमरे के मुख से सुग्व की प्राप्ति हो तो सर्वत्र ही मुझको सुख की प्राप्ति हो और जब कोई किसी का लाभ-सत्कार करे तो मुझको भी सुख हो; पर ऐसा नहीं होता। मैं तो तभी प्रसन्न होता हूँ बत्र दूसरे मेरी प्रशंसा करते हैं । यह तो बालचेष्टा है । स्तुति आदि कल्याण की घातक होती है । स्तुति श्रादि द्वारा गुणी के प्रति ईर्ष्या और परलाभसत्कारामर्षण का उदय होता है। स्तुति आदि में यह दोष है। इसलिए जो मेरी निन्दा के लिए उद्यत है, वह नरकपात से मेरी रक्षा करने में प्रवृत्त हुआ | लाभ-सत्कार विमुक्ति के लिए बन्धन है। मैं मुमुन्तु हूँ। इसलिए जो, इन बन्धनों से