पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९०

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बौद-दोन मुझको मुक्त करता है, यह शत्रु किस प्रकार है। वह तो एक प्रकार का कल्याणमित्र है। इसलिए उससे देष करना अयुक्त है । यह बुख का ही माहात्म्य है कि मैं तो दुःख सागर में प्रवेश करना चाहता हूँ और ये कपाट बद कर मेरा मार्ग अवरुद्ध करना चाहते हैं। प्रतः दुःख से मेरी रक्षा करते हैं। फिर क्यों मैं इनसे द्वेष करूँ। जो पुण्य का विघात करे उसपर भी क्रोध करना प्रयुक्त है, क्योंकि तान्ति, तितिक्षा के तुल्य कोई तप अर्थात् सुकृत नहीं है, और यह सुकृत बिना किसी यन के ही उपस्थित होता है। पुण्यविनकारी के छल से पुण्यहेतु की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि मैं पुण्यविनकारी को क्षमा न करूं तो मैं ही पुण्यहेतु उपस्थित होने पर पुण्य का बाधक होता हूँ। यदि वह पुण्यविधातकारी है तो किस प्रकार वह पुण्य का हेतु हो सकता है । यह शंका उचित नहीं है। जिसके बिना कार्य नहीं होता और जिसके रहने पर ही कार्य होता है, वही उस कार्य का कारण है; बह उसका विघातहेतु नहीं कहलाता । दान देने के समय यदि दानपति के पास कोई अर्थी श्रावे तो यह नहीं कहा जा सकता कि उस याचक ने दान में विघ्न डाला, क्योंकि वह दान का कारण है। बिना अर्थी के दान प्रवृत्त नहीं होता। इसी प्रकार शिक्षाग्रहण कराने के लिए. यदि परिव्राजक श्रावेतो उसकी प्राप्ति प्रवज्या में विघ्नकारक नहीं है। लोक में याचक मुलभ हैं, पर अपकारी दुर्लभ है; क्योंकि वो दूसरे के साथ बुराई नहीं करता, उसका कोई अनिष्ट नहीं करता। इसलिए यह समझना चाहिये कि मेरे घर में बिना अम के एक निधि उपार्जित हुई है। अपने शत्रु का कृतज होना चाहिये, क्योंकि वह बोधिचर्या में सहायक है। इस प्रकार क्षमा का फल मुझको और उसको दोनों को मिलता है। वह मेरे धर्म में सहायक है, इसलिए यह क्षमा-फल पहले उसी को देना चाहिये। यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि क्या ऐसा युक्तियुक्त होता, यदि शत्रु इस अभिप्राय से कार्य में प्रवृत्त होता कि मुझको क्षमाफल की प्राति हो ? यद्यपि शत्रु कुशल का हेतु है, तयापि वह इस बुद्धि से अपकार नहीं करता कि दूसरों को क्षमाफल प्राप्त हो । ऐसा होते हुए भी शत्रु पूजनीय है। जैसे सद्धर्म की पूजा इसलिए होती है कि वह कुशल-निष्पत्ति का हेतु है, यद्यपि वह अचित्त अर्थात् निरभिप्राय है । यदि अभिप्राय ही पूजा में हेतु होता तो आशय-शून्य होने से सद्धर्भ भी पूजनीय न होता। यदि यह कहो कि अपकार बुद्धि होने से शत्रु की पूजा न करनी चाहिये, तो बतानो शान्ति कैसे हो ? अपकार का न सहना या प्रत्यपकार करना युक्त नहीं है। जिस प्रकार हितमुख विधायक सुवैद्य के प्रति रोगी का प्रेम और श्रादर भाव रहता है, देष का गन्ध भी नहीं रहता, वहाँ शान्ति का प्रश्न ही नहीं उठता; उसी प्रकार बो अपकारी नहीं है उसके प्रति द्वेष-चित्त के निवर्तन का क्या प्रश्न ? दुष्टाशय के कारण ही क्षमा की उत्पत्ति होती है, शुभाशय को लक्ष्य का नहीं होती । इसलिए वह क्षमा का हेतु है और सद्धर्म की तरह उसका सत्कार करना चाहिये। मुझे उसके श्राशय के विचार करने का कोई प्रयोजन नहीं है । सत्व-क्षेत्र और जिन-क्षेत्र का वर्णन भगवान् ने किया है, क्योंकि इनकी अनुकूलता से बहुतों ने बुद्धत्व प्राप्त कर लौकिक और लोकोत्तर सर्वसंपत्ति पर्यन्त पाई है। ऐसी शंका