पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशम अध्याय भयभीत होना चाहिये, जिन्होंने पाप कर्म किया है । सुकुमार होने के कारण जब तुम उष्णोदक के स्पर्श को भी सहन नहीं कर सकते तो, नारक कर्म करके सुखासीन क्यों हो ? बिना पुरुषार्थ किये फल की आकांक्षा करते हो; दुःख सहने की सामर्थ्य नहीं है, मृत्यु के वशीभूत हो । तुम्हारी दशा कष्टपूर्ण है | अष्टाक्षण-विनिमुक्त मनुष्यभाव रूपी नौका तुमको मिली है । दुःखमश्री महानदी को पार करो । वीर्य का अवलम्बन कर सब दुःखों को पार करो । यह निद्रा का समय नहीं है । यदि इस समय धुमधार्थ न करांग, तो फिर नौका का मिलना कटिन होगा। समागम बार-बार नहीं होता । कुन्मित कमों में ग्रासक्त न हो। शुभ कर्मों में रति होने से अपर्यन्त मुम्ब-प्रवाह प्रवाहित होता है । इसको छोड़कर तुम्हारी प्रवृत्ति रति, हास, क्रीडा, इत्यादि में क्यों है ? यह केवल दुश्व का हेतु है । अविषाद, बलव्यूह, निपुणता, यात्मरशवर्तिता, परात्मसमता और पगात्मपरिवर्तन से वीय-समृद्धि का लाभ होता है। कोई पुरुष-विशेष अपरिमित पुण्य, ज्ञान के बल से दुष्कर कों का अनुष्ठान कर कहीं असंख्येय कल्पों में बुद्धत्य को प्राप्त होता है । मैं साधारण व्यक्ति किस प्रकार बुद्धत्व को प्राप्त करूँगा ? ऐसा विवाद न करना चाहिये; क्योंकि सत्यवादी तथागत बुद्ध ने सत्य कहा है कि जिन बुद्धों ने उत्साहवश, दुर्लभ, अनुत्तरबोधि को पाया है, वे भी संसार-सागर के प्रावर्त में परिभ्रमण करते हुए मशक, मक्षिका और कृमि की योनियों में उत्पन्न हुए थे। जिसमें पुम्वार्थ है, उसके लिए कुछ दुष्कर नहीं । मैं मनुष्यभाव में हूँ; हित- अहित पहचानने की मुझमें शक्ति है । सर्वज्ञ के बताये हा मार्ग के अपरित्याग से बोधि अवश्य प्राप्त होगी । अति दुष्कर कर्म के श्रवण से अनध्यवसाय ठीक नहीं है । हस्त-पादादि दान में देना होगा; कैसे ऐसे दुष्कर कर्म कर सकेंगे, ऐसा भय केवल इसीलिए होता है कि मोहवश गुरु और लाघव का परमार्थ विचार नहीं होता। पापकर्म कर मत्व नरकाग्नि में जलाये जाते हैं, और नाना प्रकार की यातनायें भोगते हैं । यह दुःश्व महान् , पर निष्फल है। इससे बोधि नहीं प्राप्त होती, पर बुद्धत्व का प्रसाधक दुःख अल्प और सफल है। शरीर में प्रविष्ट शल्य के उद्धरण में थोड़ा दुःख अवश्य होता है, पर बहुव्यथा का निवर्तन होता है। इसी प्रकार थोड़ा दुःख सहकर दीर्घकालिक दुःख का उपशम होता है। इसलिए इस थोड़े से दुःख को सहना उचित है। वैद्य लंघन, पाचन, श्रादि दुःखमय क्रियाओं द्वारा रोगियों को प्रारोग्य-लाभ कराता है। इससे बहुत से दुःख नष्ट हो जाते हैं। इसलिए, बुद्धिमान् पुरुष का थोड़ा दुःख स्वीकार करना चाहिये। पर सर्व-व्याधि-चिकित्सक भगवान् ने साधक के लिए इन उचित दुःखोत्पादिनी क्रियाओं का कर्तव्यरूप में प्रतिपादन नहीं किया है। वह सामर्थ्यानुमार मृदु उपचार द्वारा दीर्घ रोगियों की चिकित्सा करते हैं । प्रारम्भ में राल्य के परित्याग में, यथा शाकादि दान में, नियुक्त करते हैं। पीछे से जब मृदु दानाभ्यास-कर्म से अधिक मात्रा में दानाभ्यास प्रकर्ष होता है, तब अपना मांस रुधिर श्रादि भी प्रसन्नतापूर्वक देने की सामर्थ्य प्रकट होती है। जब अभ्यासवश स्वमांस में शाक के समान निरासंग बुद्धि उत्पन्न होती है, तब स्वमांसादि दान भी सुलभ हो जाता है।