पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९४

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३.६ बौद-धर्म-दराज बोधिसत्व को कायिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःख नहीं होते। पाप से विरत होने के कारण कायिक दुःख नहीं होता । बाह्य और श्राध्यात्म-नैरात्म्य होने के कारण मानसिक दुःख भी उसको नहीं होता। मिथ्याकल्पना से मानसिक और पाप से कायिक व्यथा होती है पुण्य से शरीर-सुख और यथार्थज्ञान से मानसिक-सुख मिलता है । जो दयामय है, और जिसका जीवन संसार में परमार्थ के लिए ही है, उसको कौन सा दुःख हो सकता है ? यदि यह शंका हो, कि दीर्घकाल में पुण्य-संचय द्वारा सम्यक्-संबोधि की प्राप्ति होती है, इसलिए मुमुक्षु को चाहिये, कि शीघ्र काल में फल देनेवाले हीनयान ही का प्राश्रय ले; तो ऐसी शंका न करनी चाहिये । क्योंकि महायान पूर्वकृत पापों का क्षय करता है, और पुण्यसागर की प्राप्ति कराता है। इसलिए यह हीनयान की अपेक्षा शीघ्रगामी है। बोधिचित्त-रथ पर प्रारूढ़ होना चाहिये। यह सब क्लेशों का निवारक है । इस प्रकार उत्तरोत्तर अधिकाधिक सुख पाते हुए, कौन ऐसा सचेतन है, जो विषाद को प्राप्त हो १ सत्वों को अर्थसिद्धि के लिए बोधिसत्र के पास एक बलव्यूह है जो इस प्रकार है:-छन्द, स्थाम, रति, और मुक्ति । 'छन्दः कुशल की अभिलाषा को कहते हैं। इस भय से कि अशुभ कर्म से दुःख उत्पन्न होता है और यह सोचकर कि शुभकर्म द्वारा अनेक प्रकार से मधुर फलों की उत्पत्ति होती है, सत्व को कुशल-कर्म की अभिलाषा होनी चाहिये । 'स्थामा प्रारब्ध को हड़ता को कहते है। रतिः सत्कर्म में आसक्ति है । 'मुक्ति' का अर्थ उत्सर्ग है। यह बलव्यूह वीर्य-साधन में चतुरंगिणी सेना का काम देता है । इसके द्वारा आलस्यादि विपक्ष का उन्मूलन कर वीर्य प्रव- धन के लिए यत्न करना चाहिये । मुझको अपने और पराये अप्रमेय काय वाक्-चित्तसमाश्रित दोष नष्ट करने हैं । एक- एक दोष का क्षय मुझ मन्दवीर्य से अनेक शत-सहस कल्पों में होगा। दोष नाश के लिए, मुझमें लेशमात्र भी उत्साह नहीं दिखलाई पड़ता। मैं अपरिमित दुःख का भाजन हूँ । मेरा हृदय क्यों नहीं विदीर्ण होता है इस अद्भुत और दुर्लभ मनुष्य-जन्म को मैंने वृथा गँवाया। मैंने भगवत्पूजा का सुख नहीं उठाया । मैंने बुद्ध-शासन की पूजा नहीं की । भीतों को अभयदान नहीं दिया । दरिद्रों की आशा नहीं पूरी की। बातों को सुखी नहीं किया । मेरा जन्म केवल माता को दुःख देने के लिए हुआ है । पूर्वकृत पापों के कारण धर्म को अभिलाषा का अभाव है । इसीलिए. इस जन्म में मेरी यह दशा हुई है । ऐसा समझकर कौन कुशल-कर्म की अभि- लाषा का परित्याग करेगा ? सब कुशलों का मूल 'छन्द है । उसका भी मूल बार-बार शुभ-अशुभ कर्मों के विषाक-फल की भावना है। जो पापी हैं, उनको अनेक प्रकार के कायिक, मानसिक नरकादि दुःख होते हैं, और उनके लाभ का विधात होता है। पुण्यवान्। को अभिवांछित फल मिलता है, पापी को जब जब सुख की इच्छा का उदय होता है, तब तय दुःख- रास्त्रों से उसका विधात होता है ! जो असाधारण शुभकर्म करते हैं, वे इच्छा न रखते हुए मातृ-कुक्षि में नहीं उत्पन्न होते । जो अशुभ कर्म करते हैं, काल-दूत उनके शरीर की सारी खाल उधेड़ते हैं। भाग गलाए हुए. तावे से उनके शरीर को स्नान कराते है, जलती हुई उलवार और शक्ति के प्रहार से मांस के सैकड़ों खएड करते है, और सतप्त लौहभूमि पर वे बार बार पुण्यबल से