पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९६

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२०६ गौड़-धर्म-पराम करते हुए निपुणतर दृढ़ प्रहार किया जाता है, उसी प्रकार दृढ़ प्रहार करना चाहिये । अणुमात्र भी दोष को अवकाश न देना चाहिये। जैसे विष रुधिर में प्रवेशकर शरीर भर में व्यात हो जाता है, उसी प्रकार दोप अवकाश पाकर चित्त में व्याप्त हो जाता है । श्रतः क्लेश-प्रहार के निवारण में यत्नवान् होना चाहिये। जब निद्रा और बालस्य का प्रादुर्भाव हो, तब उनका शीघ्र प्रतीकार करे; जैसे किसी पुरुष की गोद में यदि सर्प चढ़ पाता है तो, वह झट से खड़ा हो जाता है । जब-जब स्मृति-प्रमोष हो, तब-तब परिताप होना चाहिये और सोचना चाहिये कि क्या करें जिसमें फिर ऐसा न हो । बोधिसत्व को सत्संग की इच्छा करनी चाहिये । जैसे रुई वायु की गति से संचालित होती है, वैसे ही बोधिसत्व उत्साह के वश होता है और इस प्रकार अभ्यास-परायण होने से ऋद्धि की प्राप्ति होती है। ध्यान-पारमिता-वीर्य की वृद्धि कर समाधि में मन का आरोप करे अर्थात् चित्तैकाग्रता के लिए यत्नवान् हो, क्योंकि विक्षिप्त-चित्त पुरुष वीर्यवान् होता हुश्रा भी क्लेशों से कवलित होता है । जन-सम्पर्क के विवर्जन से तथा कामादि वितकों के विवर्जन से विक्षेप का प्रादुर्भाव नहीं होता और निरासंग होने से आलम्बन में चित्त की प्रतिष्ठा होती है । इसलिए संसार का परि- त्याग कर रागद्वेष मोहादि विक्षेप हेतुओं का परित्याग करना चाहिये । स्नेह के वशीभूत होने से और लाभ, सत्कार, यश आदि के प्रलोभन से संसार नहीं छोड़ा जाता । विद्वान् को सोचना चाहिये कि जिसने चित्तैकापता द्वारा यथाभूत तत्वज्ञान की प्राप्ति की है, वही क्लेशादि दुःखों का प्रहाण कर सकता है। ऐसा विचार कर क्लेश-मुमुक्षु पहले शमथ अर्थात् चित्तैकाग्रता के उत्पादन की चेष्टा करे । जो समाहित-चित्त है और जिसको यथाभूत तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हुई है, उसकी बाह्य चेष्टा का निवर्तन होता है और शम के होने से उसका चित्त चंचल नहीं होता । लोक-विषय में निरपेक्ष बुद्धि रखने से ही यह शमथ उत्पन्न होता है । अनित्य- पुत्रदारादिकों में अनित्य सत्व का स्नेह रखना युक्त नहीं है, जब यह विदित है कि अनेक बमपर्यन्त उस अात्मप्रिय का पुनः दर्शन नहीं होगा। यह जानते हुए भी दर्शन न मिलने से वित्त व्याकुल हो जाता है और किसी प्रकार सुस्थिर नहीं होता। जब उसका प्रिय दर्शन होता है, तब भी चित्त का पूर्ण रूप से संतर्पण नहीं होता और दर्शन की अभिलाषा पूर्ववत् पीना देती है। उसको प्रिय समागम की आकांक्षा से मोह उत्पन्न होता है । वह गुण-दोष नहीं विचारता । अतः वह निरन्तर शोक-संतप्त रहता है। उस प्रिय की चिन्ता से तथा तल्लीनचित्तता के कारण प्रतिक्षण श्रायु का क्षय होता है और कोई कुशल-कर्म संपादित नहीं होता। जिस मित्र के लिए. आयु का क्षय होता है वह स्थिर नहीं है । वह चामंगुर है, अशाश्वत है। उसके लिए. दीर्घ कालावस्थायी शाश्वतधर्म की हानि क्यों करते हो। यदि यह सोचते हो कि उसके समागम से हित-सुख की प्राप्ति होगी तो यह भूल है; क्योंकि यदि तुम्हारा अाचरण उसके सदृश हुआ तो तुम अवश्य दुर्गति को प्राप्त होगे और यदि असदृश हुश्रा तो यह तुमसे द्वेष करेगा। इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में वह तुम्हारे हित-सुख का निमित्त नहीं हो सकता ! इस समागम से क्या लाभ है । क्षण में यह मित्र है और क्षण में यह शत्रु है। जहाँ प्रसन्न होना चाहिये, वहाँ कोप करते हैं। इनका श्राराधन