पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९७

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दशम अध्याय दुष्कर है । यदि इनसे इनके हित की बात कहो तो यह कोप करते है, और दूसरे को भी हित-पथ से निवारण करते है,और यदि उनकी बात न मानी जाय तो क्रुद्ध होते है। संसार के मूढ़ पुरुषों से भला कहीं हित हो सकता है ? वह दूसरे का उत्कर्ष नहीं सह सकते। जो उनके बराबर के हैं, उनसे विवाद करते हैं और जो उनसे अधम हैं, उनसे अमिमान करते है; जो उनका दोघ कीर्तन करते हैं, उनसे वह द्वेष करते हैं। मूढ़ के संसर्ग से श्रात्मोत्कर्ष, परनिन्दा, मसार-रति-कथा आदि अकुशल अवश्यमेव होते हैं। दूसरे के संग से अनर्थ का समागम निश्चय बानो । यह विचार कर अकेला मुखपूर्वक रहने का निश्चय करे। मूढ़ की संगति कभी न करे। यदि दैव-योग से कभी संग हो तो प्रिय उपचारों द्वारा उसका आराधन करे और उसके प्रति उदासीन वृत्ति रखे। जिस प्रकार भंग कुसुम से मधु-संग्रह करता है, पर परिचय नहीं पैदा करता; उसी प्रकार मूढ़ से केवल उसको ले ले, जो धर्मार्थ प्रयोजनीय हो। इस प्रकार प्रिय-संगति का कारण स्नेह अपाकृत होता है। साम्प्रत लाभादि तृष्णा का, जिनके कारण लोक का परित्याग नहीं बन पड़ता, परिहार करना चाहिये । विद्वान् को रति की शक्षिा न करनी चाहिये । जहाँ जहाँ मनुष्य का चित्त रमता है, वह वह वस्तु सहस्र- गुना दु:ग्वरूप हो उपस्थित होती है । इच्छा से भय की उत्पत्ति होती है । इसलिए बुद्धिमान् पुरुष किसी वस्तु की इच्छा न रखे । बहुतों को विविध लाभ और यश प्राप्त हुए, पर वह लाभ- यश के साथ कहाँ गये, यह पता नहीं है । कुछ मेरी निन्दा करते हैं और कुछ मेरी प्रशंसा करते है, अपनी प्रशंसा सुनकर क्यों प्रसन्न होऊँ ? और श्रात्मनिन्दा सुनकर क्यों विषाद को प्राप्त होऊँ ? जब बुद्ध भी अनेक सत्वों का परितोप न कर सके तो मुझ जैसे अशों की क्या कथा १ मुझको लोकचिन्ता न करनी चाहिये । जो सत्व लाभ-रहित है, उसकी यह कहकर लोग निन्दा करते है कि यह सत्व पुण्य-रहित है, इसीलिए. क्लेश उठाकर भी वह पिएहपातादिमात्र लाभ भी नहीं पाता, और जो लाभ-सत्कार प्राप्त करते हैं, उनका यह कहकर लोग उपहास करते है कि इन्होंने दानपति को किसी प्रकार प्रसन्न कर यह लाभ प्राप्त किया है । उभयथा उनके चित्त को शान्ति नहीं मिलती । ऐसे लोग स्वभाव से दुःख के हेतु होते हैं। ऐसे लोगों का संवास न मालूम क्यों प्रिय होता है ? मूढ़ पुरुष किसी का मित्र नहीं है, उसकी प्रीति निःस्वार्थ नहीं होती। जो प्रीति स्वार्थ पर श्राश्रित है, वह अपने लिए ही होती है । मुझको अरण्य-वास के लिए, यत्नशील होना चाहिये। वृक्ष तुच्छ दृष्टि से नहीं देखते और न उनके श्राराधन के लिए कोई प्रयत्न करना पड़ता है । कब इन वृक्षों के सहवास का सुख मुझको मिलेगा। कब मैं शून्य देवकुल में, वृतमूल में, गुहा में, सर्वनिरपेक्ष हो बिना पीछे देखे हुए निवास करूँगा? कब मैं यह त्यागकर स्वच्छन्दतापूर्वक प्रकृति के विस्तीर्ण प्रदेशों में, जहां किसी का स्वामित्व नहीं है, विहार करूँगा ? कब मैं मृण्मय भिक्षापात्र ले शरीर निरपेक्ष हो निर्भय विहार करूँगा ! भिक्षापात्र ही मेरा समस्त धन होगा, मेरा चीवर चोरों के लिए भी अनुपयुक्त होगा। फिर मुझको किसी प्रकार का भय न रहेगा।