पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९९

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पसमभन्याय के उपलेप से कमनीय हो जाता है, तो यह उचित नहीं है । सहस संस्कार करने पर भी शरीर का स्वभाव नहीं बदल सकता। नग्न, बीभत्स और भयंकर काय की केशनखादि रचना-विशेष कर लान, अभ्यङ्ग और अनुलेपन द्वारा विविध संस्कार कर मनुष्य प्रात्मव्यामोहन करता है, वो उसके वध का कारण होता है । दिना धन के सुख का उपभोग नहीं होता । बाल्यावस्था में धनोपार्जन की शक्ति नहीं होती । युवावस्था धनोपार्जन में ही व्यतीत होती है। जब उमर ढल जाती है, तब विषयों का कोई उपयोग नहीं रह जाता। कुछ लोग दिन भर भृति-कर्म कर सायंकाल को परिश्रान्त होकर लौटते हैं और मृत-कल्प सो जाते हैं । वह इस प्रकार केवल श्रायु का क्षय करते हैं, काम- सुख का श्रास्वाद नहीं करते। जो दूसरों के सेक्क हैं, उनको स्वामी के कार्यवश प्रवास का क्लेश भोगना पड़ता है। वे अनेक वर्षों में भी स्त्री और पुत्र को नहीं देखते । जिस सुख की लालसा से दूसरे का दासत्व स्वीकार किया, वह सुख न मिला । केवल दूसरों का काम कर व्यर्थ ही श्रायु का चय किया । लोग जीविका के लिए रण में प्रवृत्त होते हैं, जहाँ जीवन का भी संशय होता है । यह विडंबना नहीं तो क्या है ? इस जन्म में भी कामासक्त पुरुष विविध दुःखों का अनुभव करते हैं। वह सुख-लिप्सा से कार्य में प्रवृत्त होते हैं, पर अनर्थ-परम्परा की प्रसूति होती है । धन का अर्जन और अर्जित धन की प्रत्यवायों से रक्षा कष्टमय है, और रक्षित धन का नाश विषाद और चित्त की मलिनता का कारण होता है । इस कारण अर्थ अनर्थ का कारण होता है । धनासक पुरुष का चित्त एकाग्र नहीं होता। भव-दुःख से विमुक्त होने के लिए उसको अवकाश ही नहीं मिलता। इस प्रकार कामासक्ति में अनर्थ बहुत हैं, सुखोत्पाद की वार्ता भी नहीं है । धनासक्त पुरुष की वही दशा है, जो उस बैल की होती है जिसको शकट-भार वहन करना पड़ता है, और खाने को घास मिलती है । इस थोड़े से सुखास्वाद के लिए. मनुष्य अपनी दुर्लभ-संपत्ति नष्ट कर देता है । निश्चय ही मनुष्य की उलटी मति है, क्योंकि वह निकृष्ट, अनित्य और नरकगामी शरीर के सुख के लिए निरन्तर परिश्रम करता रहता है। इस परिश्रम का कोटिशत भाग भी बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए पर्यास है । इस पर भी मन्दबुद्धिवाले लोग बुद्धत्व के लिए उत्साही नहीं होते । जो कामान्वेगो हैं, उनको बोधिसत्व की अपेक्षा कहीं अधिक दुःख उठाना पड़ता है। काम का निदान दुःख है । शस्त्र, विष, अग्नि इत्यादि मरणमात्र दुःख देते हैं, पर काम दीर्घकालिक तीव्र नरक-दुःख का हेतु है। काम का परित्याग कर चित्त-विकेक में रति उत्पन्न करनी चाहिय । और कलह-शून्य, शान्त पनभूमियों में विहार कर सुखी होना चाहिये। वह धन्य हैं, जो वन में सुखपूर्वक भ्रमण करते है और सत्वों को सुख देने के लिए चिन्तना करते हैं, या वन में, शून्य प्रालय में, वृक्ष के तले या गुफा में, अपेक्षा-विरत हो यथेष्ट हार करते हैं। जिस सन्तोष-सुख का भोग स्वच्छन्दचारी निगही करता है, वह संतोपसुख इन्द्र को भी दुर्लभ है । इस प्रकार काय-विवेक और चित्त-विकेक के गुणों का चिन्तन कर सत्व वितकों का उपशम करता है, और जब चित्त परिसर होता है, तब बोधि-चित्त की भावना में प्रकर्ष-पद की प्राप्ति होती है । .