पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तीर्थकरत्व सब के लिए नहीं है । तीर्थकर गुरु तथा देशिक है। इस पद पर व्यक्तिविशेष ही चा सकते है, सब नहीं । तीर्थकरत्व प्रयोदश गुणस्थान में प्रकट होता है, परन्तु सिद्धावस्था की प्राप्ति चतुर्दश भूमि में होती है । द्वैत शैवागम में योगी के शुद्ध श्रश्वा में प्रविष्ट होने पर उसकी क्रमशः शुद्ध अधिकार-वासना और शुद्ध मोग-वासना निवृत्त हो जाती है। ये दोनों ही शुद्ध अवस्था के द्योतक है। इसके बाद लयावस्था में शुद्ध भावों के भी प्रभाव से शिवस्व का उदय होता है । अधिकार-वासना तथा भोग-वासना अशुद्ध नहीं है, परन्तु इसकी मी निवृत्ति आवश्यक है । अधिकारावस्था ही शास्ता का पद है । शुद्ध विद्या का अधिष्ठाता होकर दुःखपंक- मग्न जगत् में शान-दान करना तथा जीव और जगत् को शुद्ध अश्या में श्राकर्षित करना; यही विशेश्वरगण का कार्य है। यह विशुद्ध परोपकार है । इस वासना का क्षय होने पर शुद्ध भोग हो सकता है, किन्तु इसके लिए वासना का रहना आवश्यक है। इस प्रकार ईश्वरतत्त्व से सदाशिव तस्व तक का श्रारोहण होता है | जब शुद्ध प्रानन्द से भी वैराग्य होगा तब अन्तान अवस्थाभूत शिवत्व का स्फुरण होगा। किन्तु इसमें उपाधि रहती है । इसके बाद निरुपाधिक शिवत्व का लाभ होता है। उसमें व्यक्तित्व नहीं होता, क्योंकि शुद्धवासना का क्षय होने पर व्यक्तित्व नहीं रह सकता। उस समय महामाया से पूर्ण मुक्ति मिल माती है। अद्वैत शैवागम में भी भगवदनुग्रह के प्रभाव से शुद्ध मार्ग में प्रवेश होता है, पश्चात् परमशिवत्व की स्थिति का क्रमशः विकास होता है । दीक्षा का भी यथार्थ रहस्य यही है कि इससे पाश-क्षय और शिवत्व-योजन दोनों का लाभ होता है। प्राचीन काल में बुद्धत्व का प्रादर्श प्रत्येक जीव का नहीं था। यह किसी किसी उच्चा- पिकारी का था। उसके लिए उसे विभिन्न जन्मों से विभिन्न प्रकार के संघर्षण के प्रभाव से जीवन का उत्कर्ष साधन करना पड़ता था। इस साधना को पारमिता की साधना कहते हैं। पुण्य-संभार तथा शान-संभार दोनों से बुद्धत्व निष्पन्न होता है। पुण्य-संभार कर्मात्मक, शान- संभार प्रज्ञात्मक है । इन दोनों की उपयोगिता थी। अद्वैतभाव के विस्तार के साथ साथ बुद्धत्व हो गया था । पहले गोत्र-भेद का सिद्धांत स्वीकार किया जाता था, किन्तु लक्ष्य बड़ा होने के कारण यह क्रमशः उपेक्षित होने लगा। अभिनव दृष्टि के अनुसार बुद्ध-बीब सभी के भीतर है। परन्तु एकमात्र मनुष्य-देह का ही यह वैशिष्ट्य है कि यहाँ यह अंकुरित होकर विकसित हो सकता है। तभी बुद्धत्व-लाम हो सकता है । जिस समय से बुद्धत्व के श्रादर्श का प्रसार हुमा, उस समय से बोधिसत्व की चर्या श्रावश्यक प्रतीत होने लगी। इस अवस्था निर्वाण का प्राचीन श्रादर्श मलिन हो गया और इसका आदर्श महानिर्वाण या महापरिनिर्वाण के रूप में परिणत हो गया। का श्रादर्श साधक तथा योगी के जीवन में अन्य धर्मों के विकास के सदृश करणा का विकास भी भावश्यक है। जगत् के विभिन्न श्राध्यास्मिक प्रस्थानों में इस धर्म का विशेष महत्व स्वीका- किया गया है। करुणा ही सेवा का मूल है। यह प्रसिदि ठीक है-सेवाधर्मः परमगहना