पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३००

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बौद-ब-दर्शन वह भावना करता है कि सब प्राणियों को समान रूप से सुख अनुप्राहक और दुःख वाधक होता है, इसलिए मुझको प्रात्मवत् सबका पालन करना चाहिये। वह विचारता है कि जब मुझको और दूसरों को सुख समानरूप से प्रिय और दुःख तथा भय समानरूप से अप्रिय है, तो मुझमें क्या विशेषता है कि मैं अपने ही सुख के लिए यज्ञवान् होऊँ और अपनी ही रक्षा करूँ ? करुणा-परतन्त्रता से लोग दूसरों के दुःख से दुःखी होते है और सर्व दुःख के अपहरण के लिए यलवान होते हैं। एक के दुःख से यदि बहुत सत्वों का दुःख दूर हो तो दयावान् को वह दुःख उत्पादित करना चाहिये । जो कृपावान् है, वह दूसरे के उद्धार के लिए नारक दुःख को भी सुख ही मानते हैं। जीवों के निस्तार से उनको अनन्त परितोष होता है। मशा-पारमिता—चित्त की एकाग्रता से प्रज्ञा के प्रादुर्भाव में सहायता मिलती है । जिसका चित्त समाहित है, उसी को यथाभूत परिशान होता है। प्रशा से सब आवरण की अत्यन्त हानि होती है। प्रशा के अनुकूलवती होने पर ही दान प्रादि पांच पारमितायें सम्यक्संबोधि की प्राप्ति कराने में समर्थ और हेतु होती है । दानादि गुण प्रशा द्वारा परिशोधित होकर अभ्यासक्श प्रकर्ष की पराकासा को पहुँचते हैं और अविद्या प्रवर्तित सकल विकल्प का ध्वंस कर तथा लेश और श्रावरणों को निर्मूल कर परमार्थ-तत्व को प्राति में हेतु होते हैं। इस प्रकार षट-पारमिता में प्रशापारमिता की प्रधानता पाई जाती है। 'आर्य-शत- साहसी-प्रशा-पारमिता में भगवान् कहते हैं--."हे सुभूति ! जिस प्रकार सूर्य-मण्डल और चन्द्र-मण्डल चार द्वीपों को प्रकाशमान करते हैं, उसी प्रकार प्रज्ञा-पारमिता का कार्य पंच- पारमिता में दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार बिना सप्तरत्न से समन्वागत हुए राजा चक्रवर्ती का पद नहीं पाता, उसी प्रकार प्रज्ञापारमिता से रहित होने पर पंच-पारमिता पारमिता के नाम से नहीं पुकारी जा सकती। प्रशापारमिता अन्य पाँच पारमिताओं को अभिभूत करती है । बो जन्म से अन्धे हैं, उनकी संख्या चाहे कितनी ही क्यों न हो, बिना मार्ग-प्रदर्शक के मार्गावतरण में असमर्थ है । इसी प्रकार दानादि पांच पारमिताएँ नेत्र-विकल है, बिना प्रशा-चक्षु की सहायता के बोधि-मार्ग में अवतरण नहीं कर सकतीं। जब पंच पारमिता प्रया-पारमिता से परिगृहात होती है, तभी सचतुष्क होती है। जिस प्रकार तुद्र नदियाँ गंगा नाम की महानदी का अनुगमन कर उसके साथ महासमुद्र में प्रवेश करती है, उसी प्रकार पांच पारमिताएँ प्रज्ञा-पारमिता से परिगृहीत हो और उसका अनुगमन कर सर्वाकारशता को. प्राप्त होती हैं। अता यह पारमिता पंचात्मक पुण्य-संभार को समुत्थापक है । जब चित्त समाहित होता है, तब चित्त को मुख-शान्ति मिलती है और चित्त के शान्त होने से हो प्रक्षा का प्रादुर्भाव होता है। शिक्षासमुच्चय [पृ. ११६] में कहा है- कि पुनरस्य शमयस्य माहात्म्यं यथाभूत-शानजननशक्तिः । यस्मात् समाहितो यथाभूत बानातीयुक्तवान् मुनिः। अर्थात् इस 'शमय का स्या माहात्म्य है ? यथाभूत ज्ञानोत्पत्ति में सामर्थ्य ही इसका माहात्म्य है, क्योंकि भगवान ने कहा है कि जो समाहित-चित्त है, वही यथामूत का पान