पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३०१

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पशममध्याय रखता है। जो यथाभूतदशी है, उसी के हृदय में सत्यों के प्रति महाकरुणा उत्पन्न होती है। इस महा-करुणा से प्रेरित हो शील, प्रज्ञा और समाधि इन तीनों शिक्षाओं को पूरा कर बोधिसत्व सम्यक-संबोधि प्राप्त करता है। सर्व धर्म के अनुपलम्भ को ही प्रशा-पारमिता कहते है । अष्टसाहसिकाप्रज्ञापारमिता में कहा है- 'योऽनुपलम्भः सर्वधर्माणां सा प्रज्ञापारमितेत्युच्यते । शून्यता में बो प्रतिष्ठित है उसी ने प्रज्ञापारमिता प्राप्त की है। जब यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि भावों की उत्पत्ति न स्वतः होती है, न परतः होती है, न उभवतः होती है और न अहेतुतः होती है, तभी प्रशा- पारमिता की प्राप्ति होती है । उस समय किसी प्रकार का व्यवहार नहीं रह जाता। उस समय इस परमार्थ-सत्य की प्रतीति होती है कि दृश्यमान वस्तुजात माया के सदृश है, स्वप्न और प्रतिबिम्ब की तरह अलीक और मिथ्या है। केवल व्यवहारदशा में उनका सत्यत्व है । जो स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वह सांवृत-स्वरूप है । यथाभूत-दर्शन से इस अनादि संसार-प्रवाह का यथावस्थित सांयत-स्वरूप उद्भावित होता है। व्यवहारदशा में ही प्रतीत्यसमुत्पाद की सत्ता है; पर परमार्थ-दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पाद धर्म-शून्य है । क्योंकि परमार्थ में भावों का स्वकृतत्व परकृतत्व और उभयकृतत्व निषिद्ध है। वास्तव सब शून्य ही शून्य है। सब धर्म स्वभाव से अनुत्पन्न है। यह शान आर्य-शान कहलाता है। जब इस आर्य-ज्ञान का उदय होता है तब अविद्या की निवृत्ति होती है । अविद्या के निरोध से संस्कारों का निरोध होता है । इस प्रकार पूर्व-पूर्व कारणभूत के निरोध से उत्तरोत्तर कार्यभूत का निरोध होता है । अन्त में दुखि का निरोध होता है । इस प्रकार अविद्या, तृष्णा और उपादान रूपी लेश-मार्ग का, संस्कार और भवरूपी कर्म-मार्ग का और दुःख-मार्ग का व्यवच्छेद होता है । पर जो मनुष्य असत् में सत् का समारोप करता है, उसकी बुद्धि विपर्यस्त होती है और उसको रागादि संश उत्पन्न होते है। इसी से कर्म की उत्पत्ति होती है। कर्म ही से जन्म होता है और जन्म के कारण ही जरा, मरण, व्याधि, शोक, परिदेवनादि दुःख उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार केवल महान् दुःख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। प्रज्ञा द्वारा सब धर्मों की निःस्वभावता सिद्ध होती है और प्रत्यवेक्षमाण जगत् स्वप्न- मायादिवत् हो जाता है । तब इस ज्ञान का स्फुरण होता है कि जो प्रत्यय के आधीन है, वह शून्य है। सब धर्म मायोपम है। बुद्ध भी मायोपम हैं। यथार्थ में बुद्धधर्म निःस्वभाव है। सम्यक् संबुद्धत्व भी मायोपम है । निर्वाण भी मायोपम है। यदि निर्वाण से भी कोई विशिष्टतर धर्म हो तो यह भी मायोपम तथा स्वमवत् ही है। जब परमार्थज्ञान की प्राप्ति होती है तब वासनादि निःशेष दोषराशि की विनिवृत्ति होती है । यही प्रशा सब दुःखों के उपशम की हेतु है। सर्वधर्मशून्यता के स्वीकार करने से लोकव्यवहार असंभव हो जाता है। अब रूब कुछ शत्य ही शून्य है, यहाँ तक कि बुद्धत्व और निर्वाण भी शून्य हैं, तब लोक व्यवहार कहां से चल सकता है १ शत्य का स्वरूप अनिवर्चनीय है, यह अनवर है। इसलिए इसका शान और उपदेश कैसे हो सकता है ? शून्यता के संबंध में इतना भी कहना कि यह अनक्षर है