पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पौर-पम-परान अर्थात् चाम्वित्रयातीत है, मिथ्या है। ऐसा केवल समारोप से ही होता है । बत्र किती के संबध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता और जब 'शून्यता' शब्द का प्रयोग भी केवल लोक- व्यवहार-सिद्ध है, परन्तु परमार्थ में अलीक और मिथ्या है, तब एक प्रकार से हमारा मुँह ही पद हो जाता है और लोक-व्यवहार का अत्यन्त व्यवच्छेद होता है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए सत्यस्य की व्यवस्था की गयी है-संवृति-साय और परमार्थ-सय । संवृति-सत्य व्यावहारिक-सत्य है। 'संवृतिः उसे कहते है जिससे यथाभूत-परिज्ञान का प्रावरण हो। अविद्या से ही स्वभाव का प्रावरण होता है और यथावस्थित सांवृत स्वरूप का उद्भावन होता है। अविद्या से ही असत् का सत् में आरोप होता है और वह असत् सत्यवत् प्रतिभात होता है। लोक में यह संवृति दो प्रकार की है : तथ्य-संवृति और मिथ्या- संवृति । जिस वस्तुजात के ग्रहण में इन्द्रियों का उपघात नहीं होता अर्थात् जिसकी उपलब्धि इन्द्रियों द्वारा बिना किसी दोध के होती है, वह लोक में सत्य प्रतीयमान होता है और उसकी संशा 'तथ्य-संवृतिः है। पर मृगतृष्णा के समान जिस वस्तु-जात की इन्द्रियोपलब्धि दोषवती होती है, वह विकल्पित है, और लोक में उसकी मंज्ञा मिथ्या-संवृति' है। पर दोनों प्रकार के संवृति-सत्य सम्यगदशी के लिये मृषा है, क्योंकि परमार्थ-दशा में संवृति-सत्य भी अलीक और मिथ्या है। परमार्थ-सत्य वह है जिसके द्वारा वस्तु का अकृत्रिम-रूप अवभासित होता है । वस्तु-स्वभाव के अधिगम से श्रावृति, वासना और क्लेश की हानि होती है । सब धर्म निःस्वभाव और शून्य हैं। तथता, भूतकोटि, धर्मधातु इत्यादि शून्य के पर्याय है । जो रूप दृश्यमान है, वह सत्-स्वभाव का नहीं है, क्योंकि उत्तर काल में उसकी स्थिति नहीं है। बिसका जो स्वभाव होता है, वह कदापि किंचिन्मात्र भी परिवर्तित नहीं होता। उसका स्वरूप अविचलित है; अन्यथा उसको स्वभावता के नष्ट होने का प्रसंग उपस्थित होगा । उत्पद्य- मान वस्तु का न तो कहीं से सत्-स्वरूप में श्रागम होता है, और न निरोध होने पर उसका कहीं लय होता है । हेतुप्रत्ययसामग्री का आश्रय लेकर ही वस्तु माया के समान उत्पन्न होती है, और हेतुप्रत्ययसामग्री की विकलता से ही सर्व वस्तु-जात का निरोध होता है। जो वस्तु हेतु- प्रत्यय-सामग्री का श्राश्रय लेकर उत्पन्न होती है, अर्थात् जिसकी उत्पत्ति पराधीन है, उस वस्तु की सत्स्वभावता कहाँ ? यदि परमार्यदृष्टि से देखा जाय तो हेतु-प्रत्यय-सामग्री से भी किसी पदार्थ की समुत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वह सामग्री भी अपर सामग्री-अनित है और उसको प्रारम-लाम भी पराधीन होने के कारण स्वभावरहित है। इस प्रकार पूर्व-पूर्व सामग्री की निःस्व- भाक्ता जाननी चाहिये। जब कार्य कारण के अनुरूप होता है, तब किस प्रकार निःस्वभाव से स्वभाव की उत्पत्ति संभव है १ बो हेतुओं से निर्मित है और जो माया से निर्मित है, उनके संबन्ध में निरूपण करने से शात होगा कि वह प्रतिबिम्ब के समान कृत्रिम है। जिस प्रकार मुखादि-बिम्ब अादर्श-मण्डल के संनिधान से उसमें प्रतिबिम्बित होता है और यदि उसका प्रभाव हो तो मुख-विम्ब का उसमें प्रतिभास न हो, उसी प्रकार बिस वस्तु के रूप की उपलब्धि दूसरे हेतु-प्रत्यय के संनिधान से होती है, अन्यथा नहीं होती; वह वस्तु प्रतिबिम्ब के समान कृत्रिम है। इसलिए यत्किंचित् हेतु-प्रत्ययोपचनित है, वह परमार्थ में असत् है । इस प्रकार शन्य-