पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३०३

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यसमबन्याय धों से शल्य-धर्म ही उत्पन्न होते हैं। भावों की उत्पत्ति स्वतः स्वभाव से नहीं है । उत्पाद के पूर्व वह स्वभाव विद्यमान नहीं है, इसलिए कहाँ से उसकी उत्पत्ति हो । उत्पन्न होने पर उसका स्वरूप निष्पन हो जाता है, फिर क्या उत्पादित किया जाय । यदि यह कहा जाय कि जात का पुनर्जन्म होता है, तो यह मी ठीक नहीं है; क्योंकि बीज और अंकुर एक नहीं है । रूप, रस, वीर्य और विपाक में दोनों मिन है। अपने स्वभाव से यदि जन्म होता तो किसी की उत्पत्ति ही न होती । स्वभाव और उत्पत्ति इतरेतर-आश्रित हैं। जब तक स्वभाव नहीं होता, तब तक उत्पत्ति नहीं होती; और जब तक उत्पत्ति नहीं होती तब तक स्वभाव नहीं होता। इससे यह पष्ट है कि स्वतः किसी की उत्पत्ति नहीं होती, परतः भी किसी की उत्पत्ति नहीं होती; क्योंकि ऐसा मानने में शालि-बीज से कोद्रवांकुर की उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित होगा; अथवा ऐसी अवस्था में सबका कम सबसे मानना पड़ेगा, जो दूपित है। यह मानना भी ठीक न होगा कि कार्यकारण का अन्योन्य जन्यजनकभाव नियामक होने से सबकी उत्पत्ति होती है। जब तक कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, तब तक यह नहीं बतलाया जा सकता कि इसकी शक्ति किसमें है। और जब कार्य की उत्पत्ति होती है, उस अवस्था में कारण का अभाव होने से यह नहीं कहा बा सका गट किसकी शक्ति है । कार्य-कारण का जन्यजनकभाव नहीं है, क्योंकि दोनों समान काल में नहीं रहते । कार्यकारण की एक सन्तति मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि कार्य- कारण के बिना सन्तति का अभाव है और कार्य-कारण का एक क्षण भी अवस्थान नहीं है। पूर्वापर क्षण-प्रवाह में सन्तति की कल्पना की गयी है। वास्तव में सन्तति-नियम नहीं है । इस प्रकार सादृश्य भी कोई नियामक नहीं है। श्रत. परतः भी किमी की उत्पत्ति नहीं होती और उभयतः भी उत्पत्ति नहीं होती। दोनों में से जत्र प्रत्येक अलग अलग संभव में असमर्थ है, तब फिर दोनों मिलकर किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं। यदि सिकता के एक कण में तैल-दान की सामर्थ नहीं है, तो अनेक कण मिलकर भी योग्यता नहीं प्राप्त कर सकते। अतः उभयतः भी किसी की उत्पत्ति का होना संभव नहीं है। यह भी युक्त नहीं है कि, अहेतुतः उत्पत्ति होती है; क्योंकि ऐसा मानने में भावों के देशकालादि नियम के अभाव का प्रसंग होगा और वो परमार्थ-सत्य की उपलब्धि चाहते हैं, उनके लिए किसी प्रतिनियत उपाय का अनुष्ठान न हो सकेगा। इसलिए अहेतुतः भाव स्वभाव का प्रतिलाभ नहीं करते । प्राचार्य नागार्जुन मध्यमकमूल (१,१) में कहते हैं- न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः । उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः कचन केचन ॥ जब परिदृश्यमान रूप का सद्भाव विचार करने पर नहीं मालूम पड़ता, तब अनागत आदि की संभावना को क्या कथा ? अतः यह सिद्ध हुआ कि भाव तत्वतः नि:स्वभाव है। निस्वभाव ही सब भावों का पारमार्थिक रूप ठहरता है। यह परमार्थ परम प्रयोजनीय है, पर इसमें भी अभिनिवेश न होना चाहिये, क्योंकि भावाभिनिवेश और शन्यताभिनिवेश में कोई विशेषता नहीं है। दोनों ही सांवृत होने के कारण कल्पनात्मक है। श्रभाव का भी कोई