पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३०४

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वरूप नहीं है, भाव-विकल्प हो सकल विकल्प का प्रधान कारण है । जब उसका निराकरण हुश्रा, तब सब विकल्प एक ही प्रहार में निरस्त हो जाते हैं। वस्तुतः न किसी का समुत्पाद है और न समुच्छेद। यदि प्रतीत्यसमुत्पाद के संबध में यह व्यवस्थित है कि वह अनुत्पादादिविशिष्ट है तो, फिर भगवान् ने यह क्यों कहा है कि संस्कार अनित्य है, उदय-व्यय उनका धर्म है; वह उत्पन्न होकर निरुद्ध होते है और उनका उपशम सुखकर है। यदि सब शून्य है, तो सुगति और दुर्गति भी स्वभाव-शत्य है । यदि दुर्गति निस्वभाव है तो निर्वाण के लिए पुरुषार्थ व्यर्थ है । पर ऐसी शंका करना ठीक नहीं है। यदि हम परमार्थदृष्टि से विवेचना करें तो दुर्गति स्वभाव-शून्य है । परन्तु लोकदशा में दुर्गति सत्य है। जो यह ज्ञान रखता है कि समस्त वस्तुजात शून्य और प्रपंच-रहित है वह संसार में उपलिस नहीं होता । उसके लिए न सुगति है, न दुर्गति । वह सुख और दुःख, पाप और पुण्य, दोनों से परे है, किन्तु जिसको यथाभूत-दर्शन नहीं है, वह संसार-चक्र में भ्रमण करता है । यदि तत्वतः सब भाव उत्पाद-निरोध से रहित है, केवल कल्पना में नाति- जरा-मरणादि का योग होता है, तो यह महान् विरोध उपस्थित होता है कि सब प्रावरणों का प्रहाण कर निर्वाण में प्रतिष्ठित बुद्ध भी जन्मादि ग्रहण करें। यदि ऐसा है तो बोधिचर्या का भी कुछ प्रयोजन नहीं है । बोधिचर्या का प्राश्रय इसलिए लिया जाता है कि इससे सव सांसारिक धर्मों की निवृत्ति होती है और सर्वगुणालंकृत बुद्धत्व की प्राप्ति होती है । यदि बोधिचर्या के ग्रहण से भी सांसारिक धर्म की निवृत्ति न हो, तो उससे क्या लाभ १ पर यह भी शंका प्रयुक्त है । जबतक प्रत्यर-सामग्री है, तबतक माया है, अर्थात् जबतक कारण का विनाश नहीं होता तबतक माया का निवर्तन नहीं होता। पर जब प्रत्यय-हेतु नष्ट हो जाते है, तब काल्पनिक व्यवहार में भी सांसारिक धर्म नहीं रहते । प्रत्ययों का समुच्छेद तत्वाभ्यास द्वारा अविद्या आदि का निरोध करने से होता है । अनेक प्रकार की प्रतीत्यता का कारण 'संवृति है । 'संवृति' का अर्थ है 'आवरण' अर्थात् 'अविद्या का प्रावरणा। इस अावरण द्वारा यथाभूत-दर्शन नहीं होता किन्तु मृपा-शान होता है ! यह श्रावरण उसी प्रकार हमको बाच्छन्न करता है, जिस प्रकार जन्म होते ही आकाश प्रत्येक ओर से हमको बाच्छन्न कर लेता है। संवृति स्वतः सिद्ध है। किसी अन्य प्रकार इसका अपाद नहीं बतलाया जा सकता । स्वप्न में हम जो कुछ देखते है, उसका मिथ्यात्व बात अवस्था में ही अनुभूत होता है। स्वप्नावस्था में किसी प्रमाण द्वारा उसका मिथ्यात्व सिद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार संवृति को मृग-दर्शन प्रमाणित करने के लिए उन युक्तियों का प्रयोग नहीं हो सकता जो सांवृतिक अवस्था में हैं, केवल परमार्थ-सत्य के अधिगम से ही संवृति-सत्य मृषा सिद्ध हो सकता है। जब तक परमार्थ-सत्य की उपलब्धि नहीं होती, तब तक सब युक्तियाँ संवृति को अप्रामाणिक ठहराने के लिए, अपर्याप्त है । व्यवहार के लिए संवृति-सत्य की कल्पना की गई है । जबतक लोक है, तबतक संवृति-सत्य लोक का अस्तिथ रूप है । इस प्रकार सब पदार्थों का स्वभाव दो प्रकार का होता है--सांवतिक और पारमार्थिक । मृषादर्शी का बो विषय है, यह सवित-सत्य कहलाता है, सम्यग्दर्श का बो विषय है, वह तत्व या परमार्थ-सत्य कहलाता है।