पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगिनामप्यगम्यः। जिनके चित्त में सेवावृत्ति का उन्मेष नहीं होता और जिनका हृदय करणा से प्रभावित नहीं होता, ऐसे पुरुषों का हृदय अवश्य ही संकुचित है | सब प्रकार से अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की सिद्धि ही इनका लक्ष्य होता है। जब इनका अधिकार स्वल्प होता है, तब ये अपने लिए ऐहिक या पारत्रिक अभ्युदय चाहते हैं-वह या तो जागतिक ऐश्वर्य चाहेंगे या पारलौकिक स्वर्गादि का श्रानन्द-लाभ । जब अधिकार का उत्कर्ष होता है, तब इनका लक्ष्य होता है- व्यक्तिगत जीवन के दुःखों की निवृत्ति अर्थात् मुक्ति। यदि किसी क्षेत्र में इनका लक्ष्य श्रानन्द का अभिव्यंजन भी हो, तो भी ये व्यक्ति जीवन की सीमाओं से अाबद्ध ही रहते हैं। विश्व-कल्याण या परार्थ-संपादन इनके जीवन का ध्येय नहीं होता। कभी किसी क्षेत्र में किंचित् परार्थपरता का भी प्रामास मिलता है, किन्तु वह वस्तुतः स्वार्थसिद्धि का उपायरूप ही होता है। इसके उदाहरण में दया-वृत्ति का नाम लिया जा सकता है। इस वृत्ति को कार्य रूप में परिणत करने पर या भावना के रूप में ग्रहण करने पर उससे कार्यकर्ता या भावक का चित्त शुद्ध होता है । उससे शान-प्राप्ति तथा मुक्ति में सहायता मिलती है। इस स्थल में दया दूसरे के लिए मालूम होती है, किन्तु वस्तुतः अपने कल्याण की ही साधक है। भक्ति तथा प्रेम-साधन के क्षेत्र में जैसे मानरूप भक्ति और साध्यरूप प्रेमा भक्ति में अन्तर है, ठीक उसी प्रकार करुणा संबन्धी अनुशीलन के क्षेत्र में साधन तथा साध्य करुणा में अन्तर स्पष्ट प्रतीत होता है। योग-दर्शन में चित्त के परिकर्म के रूप में मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा के नियमित परिशीलन की उपयोगिता दिखाई गयी है। प्राचीन पालि साहित्य में भी ब्रह्मविहार नाम से इन्ही वृत्तियों का निर्देश है । योग-दर्शन में करुणा का जो परिचय दिया गया है, उससे साशतः भिन्न एक अन्य रूप भी है । इसी के अवलम्ब से अर्थात् उसे ही जीवन का साध्य बनाने से, महायानी अध्यात्म-साधना का मार्ग प्रवर्तित हुआ है। इस प्रकार की करुणा का अन्तराय व्यक्तिगत मुक्ति है। इसी लिए ऐसी मुक्ति उपादेय नहीं मानी जाती । उपनिषत्- कालीन प्राचीन साधना में जीवन्मुक्ति की दशा को ही करुणा के प्रकाश का क्षेत्र स्वीकार किया गया है । ज्ञानी तथा योगी का परार्थ-संपादन इस महान् क्षेत्र के अन्तर्भूत है। जीवन्मुक्त शानी के जीवन का उद्देश्य भव-दुःख की निवृत्ति के लिए उपायरूप में ज्ञान-दान करना है । करुणा के प्रकाशन की यही मुख्य प्रणाली थी। करुणा के प्रकाश करने की दूसरी प्रणालियाँ गौण समझी जाती थीं। जीवन्मुक्त महापुरुष ही संसार-ताप से पीड़ित बीवों के उद्धार के लिए अधिकारी थे । वर्तमान जगत् में करुणा के जितने भी श्राकार दिखाई पड़ते है, ये आवश्यक होने पर भी मुख्य करुणा के निदर्शन नहीं हैं। हां, दोनों ही सेवाधर्म है, इसमें सन्देह नहीं । पब तक भोग से प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं होता, तब तक देह रहता है। इसलिए जीवन्मुक्ति ही सेवा के लिए योग्य समय है। किन्तु यह परिमित है, क्योंकि देहान्त होने पर सेवा का अवसर नहीं रहता । यही कारण है कि जीवन्मुक्तिविवेक में विद्यारण्य स्वामी ने शान-तन्तु के संरक्षण को ही जीवन्मुक्ति का मुख्य प्रयोजन बताया है।