पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१४

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बौर-धर्म-राम बेदना यावत् मैथुन-राग का समुदाचार नहीं होता तब तक की अवस्था है। इस अवस्या को वेदना कहते हैं, क्योंकि वहाँ वेदना के कारणों का प्रतिसंवेदन होता है। अतः यह बेदना प्रकर्षिणी अवस्था है। पृष्या भोग और मैथुन की कामना करने वाले पुद्गल की अवस्था है । रूपादि काम- गुण और मैथुन के प्रति राग का समुदाचार होता है। यह तृष्णा की अवस्था है । इसका अन्त तब होता है, जब इस राग के प्रभाव से पुद्गल भोगों की पर्येष्टि प्रारंभ करता है । उपादान का तृष्णा से भेद है । यह उस पुद्गल की अवस्था है जो भोगों की पर्येष्टि में दौड़ता-धूपता है । अथवा उपादान चतुर्विध क्लेश है । उस अवस्था को उपादान कहते हैं, जिसमें इस चतुर्विध क्लेश का समुदाचार हो । इस प्रकार प्रधाक्ति होकर वह कर्म करता है, जिनका फल अनागत-भव है । इस कर्म को भव कहते है । क्योंकि उसके कारण भव होता है ( भवत्यनेन)। भोगों की पर्येष्टि में कृत और उपचित कर्म पौनर्भविक है। जिस अवस्था में पुद्गल कर्म करता है यह भव है। जाति पुन:-प्रतिसन्धि है । मरण के अनन्तर प्रति-सन्धि-काल के पंच-स्कन्ध जाति है । प्रत्युत्पा-भव की समीचा में जिस अंग को विज्ञान का नाम देते हैं, उसे अनागत-भव की समीक्षा में पति की संज्ञा मिलती है । जाति से वेदना तक अरा-मरण है । प्रत्युत्पन्न-भव के चार अंग---नाम-रूप, पडायतन, स्पर्श और वेदना-अनागत-भव के संबन्ध में जरा-मरण कहलाते हैं। यह बारहवां अंग है। विभिन्न दृधियों से प्रतीत्यसमुत्पाद चतुर्विध है | क्षणिक, प्राकर्षिक (अनेक-क्षणिक या अनेक बन्मिक), सांबन्धिक (हेतु-फल-संबन्ध-युक्त) और भावस्थिक (पंच स्कन्धिक १२ अवस्थाएँ)। प्रतीत्य-समुत्पाद क्षणिक कैसे है । जिस क्षण में क्लेश-पर्यवस्थित पुद्गल प्राणातिपात करता है, उस क्षण में द्वादश अंग परिपूर्ण होते हैं। १. उसका मोह अविद्या है, २. उसकी चेतना संस्कार है, ३. उसके बालम्बन-विशेष का स्पष्ट विज्ञान है, ४. विज्ञान-सहभू चार-स्कन्ध नाम रूप है ( मत-विशेष से तीन स्कन्ध ), ५. नाम-रूप में व्यवस्थित इन्द्रिय घडायतन है, ६. पडायतन का अमिनिपात सर्श है ( चत्तु का अभिनिपात उसकी रूप में प्रवृत्ति है।) ७. स्पर्श का अनुभव वेदना है, ८. राग तृष्णा है, ६. तृष्णा संप्रयुक्त पर्यवस्थान ( अह्री श्रादि पर्यवस्थान है ) उपादान है, १०. वेदना या तृष्णा से समुत्थित काय या वाक्-कर्म भव है, ११. इन सब धर्मों का उन्मान, उत्पाद बाति है, १२. इनका परिपाक जरा है; इनका भंग मरण है । पुनः कहा है कि प्रतीत्यसमुत्पाद क्षणिक और सांवन्धिक है। श्रावस्थिक प्रतीत्य- समुत्पाद पंच-स्कन्धिक बारह अवस्थाएँ हैं। तीन निरन्तर जन्मों में संबद्ध होने से यह प्राकर्षिक भी है। अत: यह प्रश्न उठता है कि द्वादशांग-सूत्र में भगवान् का अभिप्राय इन चार में से किस प्रकार के प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना देने का है।