पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१७

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बादश अध्याय सूत्र में कहा है-"भितुओ! मैं तुम्हें प्रतीत्यसमुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पम धर्मों की देशना दूंगा"। प्रतीत्य-समुत्पाद और इन धर्मों में क्या भेद है ? अभिधर्म के अनुसार कोई भेद नहीं है । उमय का लक्षण एक ही है । प्रकरणों में कहा है-'प्रतीत्य-समुन्पाद क्या है १ सर्व संस्कृत धर्म । प्रती-य-समुत्पन्न धर्म क्या है ? सर्व संस्कृत धर्म" । सर्व संस्कृत धर्म त्रैयविक है । अनागत धर्म और अतीत तथा प्रत्युत्पन्न संस्कृत धर्मों के एकजातीय होने से इसकी युक्तता कही जाती है । यथा अनागत रूप 'रूपा कहलाता है। क्योंकि वह रूप्यमाण रूप की जाति का है। किन्तु प्रतीत्य-समुत्पाद और प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों में विशेष करने में सूत्र का क्या अभिप्राय है ? समुत्पाद हेतु है । समुत्पन्न फल है, जो अंग हेतु है, वह प्रतीत्य- समुत्पाद है, क्योंकि उससे उत्पाद होता है । जो अंग फल है; वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है, क्योंकि वह उत्पन्न होता है। किन्तु यह प्रतीत्य-समुत्पाद भी है, क्योंकि इससे समुत्पाद भी होता है, और सब अंगों का हेतु-फल-माव भी है; अतः वह एक ही काल में दोनों है । निवागन्तरीय (प्रार्य महीशासक, विभाषा २३) व्याख्या के अनुसार विभज्यवादिन् ('समयभेद के अनुसार महासांधिक ) का मत है कि प्रतीत्य-समुत्पाद असंस्कृत है, क्योंकि सूत्र- वचन है.-"तथागतों का उत्पाद हो या न हो धर्मों की यह धर्मता स्थित है। यदि इसका यह श्रथ है कि अविद्यादि प्रत्ययवश संस्कारादि का सदा उत्पाद होता है, अन्य प्रत्ययवश नहीं; अहेतुक नहीं, और इस अर्थ में प्रतीत्यसमुत्पाद की स्थिरता है, यह नित्य है तो यह निरूपए यथार्थ है। किन्तु यदि इसका यह अर्थ लगाया जाता है, कि प्रतीत्य-समुत्पाद नाम के एक नित्य धर्म का सद्भाव है तो यह मत अग्राह्य है, क्योंकि उत्पाद संस्कृत-लक्षण है। एक धर्म नित्य और प्रतीत्य-समुत्पन्न दोनों कैसे हो सकता है ? .. उप्पादा वा तथागतान अनुप्पादा वा तथागतानं ठिता व सानु धम्महितता धम्मनि- यामता इदप्पस्चयता..."इति खो भिक्खये या तत्र तथता अवितथता अनन्नतथा इदष्प- स्वयता, अयं पुश्चति भिक्खवे पटिश्चसमुप्यादो ति [ संयुस २५२५-२६ ] प्रतीत्यसमु. त्पाद प्रत्यय-धर्म है । उन उन प्रत्ययों से निर्वृत-धर्म प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्म है [ विशुद्धि पृ० ३३२] उन उन प्रस्थयों से (न न्यून न अधिक) उस उस धर्म का संभव होने से यह नय-सथता कहलाता है । प्रत्यय सामग्री के उपगत होने पर उससे निवृत होने वाले धर्मों की अनुत्पत्ति, प्रभाव होने से यह अवितथता है। अन्य धर्म-प्रत्ययों से अन्य धर्मों की अनुत्पत्ति होने से यह अनन्यथाव है । तथोक्त इन जरा-मरणादि का प्रत्यय या प्रत्यय- समूह इदंप्रत्ययता है। कोई यह अर्थ कर है कि प्रतीत्यसमुत्पाद उत्पादमात्र है, अर्थात् तीर्थिक-परिकल्पित प्रकृतिपुरुषादि करण-निरपेक्ष हैं । यह युक्त नहीं है [विशुदि. ३२-३६३] । प्रत्ययता से धर्म-समूह की प्रवृत्ति होती है। यह गंभीर गया है। इसलिए भगवान् संबोधि-रात्रि के प्रथम याम में प्रतीत्यसमुत्पाद की भावना प्रमुखोम-प्रतिलोम रूप से करते हैं। यह उबार मात्र में नहीं है।