पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१८

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गौद धर्म-दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद शन्द का क्या अर्थ है ? 'पति' का अर्थ है 'प्राप्ति', 'इण्' धातु गत्यर्थक है, किन्तु उपसर्ग धातु के अर्थ को बदलता है। इसलिए 'प्रति-इः का अर्थ 'प्रामि है और 'प्रतीत्य' का अर्थ 'प्राप्त करहै। पद् धातु सत्तार्थक है। सम्-उत् उपसर्ग पूर्वक इसका अर्थ 'प्रादुर्भाव है। अतः प्रतीत्य-समुत्पाद प्राप्त होकर प्रादुर्भाव, अर्थात् वह उत्पद्यमान है। प्रत्ययों के प्रति गमन कर उसका उत्पाद होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का अर्थ एक सूत्र शापित है । "इसके होने पर वह होता है; इसकी उत्पत्ति से उसको उत्पत्ति है"। प्रथम वाक्य में प्रतीत्य का श्रवधारण है, दूसरे में समुत्पाद का। भगवान् प्रतीत्यसमुत्पाद का निर्देश पर्याय-न्य से करते हैं। प्रथम पर्याय से यह सिद्ध होता है कि अविद्या के होने पर संस्कार होते हैं। किन्तु यह सिद्ध नहीं होता कि केवल अविद्या के होने पर संस्कार होते हैं। द्वितीय पर्याय पूर्व पर्याय का अवधारण करता है, अविद्या के हो उत्पाद से संस्कारों का उत्पाद होता है। अंग-परम्परा दिखाने के लिए भी पर्याय-द्वय का निर्देश है । इस अंग ( विद्या) के होने पर यह ( संस्कार ) होता है । इस अंग (संस्कार) के उत्पाद से-दूसरे के उत्पाद से नहीं- यह अंग (विशान ) उत्पन्न होता है । जम-परम्परा दिखाने के लिए भी पर्याय-द्वय का निर्देश किया गया है। पूर्व-भव के होने पर प्रत्युत्पन्न-भव होता है। प्रत्युत्पन्न-भत्र के उत्पाद से अनागत-मत्र उत्पन्न होता है । प्रत्यय-भाव दिखाने के लिए भी जो यथायोग भिन्न है, ऐसा होता है । अविद्यादि अंगों का प्रत्यय-भाव साक्षात् या पारंपर्यण होता है, यथा:-लिष्ट-संस्कार अविद्या के समनन्तर उत्पन्न होते हैं। पारंपर्य से कुशल-संस्कार उत्पन्न होते हैं। दूसरी ओर अविद्या संस्कारों का साक्षात् प्रत्यय है और विज्ञान का पारंपर्येण प्रत्यय है । पूर्वाचार्यों का मत है कि प्रथम पर्याय अप्रहाण शाफ्नार्थ है। "अविद्या के होने पर, अप्रहीण होने पर संस्कार होते हैं, प्रहाण नहीं होते। द्वितीय पर्याय उत्पत्ति शापनार्थ है-"अविद्या क उत्पाद से संस्कार उत्पन्न होते है। विशुद्धिमार्ग में [पृ. १६४-३६५ ] प्रतीत्यसमुत्पाद के अनेक अर्थ किए गये है। यथा-प्रत्ययता से प्रवृत्त यह धर्म-समूह है। इसकी प्रतीति से हित-सुख साधित होता है । अत: पंडित को उचित है कि वह इसकी प्रतीति करें। यह पटिच ( प्रत्यययोग्य) है। एक साथ सम्यक् उत्पाद होता है, एक एक करके नहीं और न अहेतुक । जो 'परिबा और 'समुप्पाद है, वह पटिच-समुप्पाद है । एक दूसरा निर्वचन सहोत्पाद 'समुत्पादा है। प्रत्यय सामग्री-वरा होता है, यथा कहते है कि बुद्धों का उत्पाद सुख है, तब अभिप्राय यह होता है कि उत्पाद सुख का हेतु है । उसी प्रकार प्रतीत्य फलोपचार से उक्त है । अथवा यह हैतु-समूह है, बो संस्कारादि के प्रादुर्भाव के लिए अविद्यादि एक एक हेतु-शीर्ष द्वारा निर्दिष्ट है, यह साधारण फल की निष्पत्ति के लिए तथा अवैकल्य के लिए सामग्री के अंगों के अन्योन्य प्रतिमुख जाता है; अतः वह 'पटिया कहलाता है। वह 'समुप्पाद' भी है, क्योंकि वह अन्योन्य का उत्पाद एक साथ करता है।