पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१९

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एक दूसरा नय है । यह प्रत्ययता अन्योन्य प्रत्यय-वश धर्मों का सहोत्पाद मिलकर करती है । इसलिए इसे प्रतीत्य कहते हैं । अविद्यादि शीर्ष से निर्दिष्ट प्रत्ययों में से जो प्रत्यय संस्कारा- दिक धर्म का उत्पाद करते हैं, वह ऐसा करने में असमर्थ होते है, जब अन्योन्य-विकलता होती है, जन अन्योन्य-प्रत्यय का अभाव होता है। अतः एक साथ मिलकर और अन्योन्य का श्राश्रय लेकर वह प्रत्ययता धर्मों का उत्पाद करती हैं, पूर्वापर-भाव से या एकदेश से नहीं। 'पटिच' पद से शाश्वतादि वाद का अभाव छोतित होता है । 'समुप्पाद' पद से उच्छेदादि बाद का विधात होता है । पूर्व पूर्व प्रत्ययवश पुनः पुनः उत्पद्यमान धर्मों का कहां उच्छेद है ? प्रतीत्य-समुत्पाद वचन से मध्यम प्रतिपत्ति द्योतित होती है । "जो करता है, वह उसके फल का प्रतिसंवेदन करता है" तथा "कर्म करण एक है, भोक्ता दूसरा है" इन दोनों वादों का प्रहाण होता है; क्योंकि प्रत्यय-सामग्री की सन्तति का उपच्छेद न कर उन उन धर्मों का संभव होता है। अविद्या प्रत्यय-वश संस्कार कैसे होते हैं ? श्री जाति-प्रत्यय-वश जरा-मरण कैसे हैं। पृथाजन यह न जानकर कि प्रतीत्यसमुत्पाद संस्कारमात्र है, अर्थात् संस्कृत धर्म है; श्रात्मदृष्टि और अस्मिमान में अभिनिविष्ट होता है । वह सुख और अदु.खामुख के लिए काय- वाक्-मन से त्रिविध कर्म करता है । ऐहिक सुख के लिए अपुण्य, प्रायति सुख के लिए कामा- बचर पुण्य, प्रथम तीन ध्यानों के सुख के लिए. और ऊर्ध्व भूमियों के अदुःखासुख के लिए श्रानिज्य कम । यह कर्म अविद्या प्रत्यय-वश संस्कार है। विज्ञान-सन्तति का अन्तराभव के साथ संबन्ध होने से कर्माक्षेप-वश यह सन्तति अतिविप्रकृष्ट गतियों में भी ज्वाला के समान पहुँच जाती है, अर्थात् निरन्तर उत्पन्न होती जाती है । संस्कार-प्रत्यय-वश यह विज्ञान है, विज्ञान का नह निर्देश उपर है। हम प्रतीत्यसमुत्पाद-पत्र के इस विज्ञानांग-निर्देश से सहमत है:-विज्ञान क्या है ? पट निशान-काय । विज्ञान पूर्वगम नाम-रूप की उत्पत्ति इस गति में होती है। यह पंच-सन्ध है । पक्षात् नाम-रूप की वृद्धि से काल पाकर पडिन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। यह घडायतन है। पश्चात् विषय-संयोग से विधान की उत्पत्ति और त्रिक-संनिपात से स्पर्श होता है, जो सुखादि संवेदनीय है। इससे सुखादि वेदनात्रय होते हैं। इस वेदनात्रय से विविध तृष्णा होती है। कामतृभ्या या दु.ख से अर्दित सत्व की कामावचरी सुखावेदना के लिए तृष्णा; रूप-तृष्णा या प्रथम तीन ध्यान की सुखावेदना और चतुर्थ ध्यान की अदु:खामुखावेदना के लिए. तृष्णा, शारून्य-तृष्या है। पश्चात् वेदना की तृष्णा से चतुर्विध उपादान--काम', दृष्टि" सीलवत', अात्मवाद' होते है । काम पंच-काम-गुण है । दृष्टियां आसठ है। जैसा ब्रह्म-जाल-सूत्र में निर्दिष्ट है। शील दौःशीज्य का प्रतिषेध है; यथा निर्गन्यो का नग्नभाव, ब्राह्मणों का दण्ड-अजिन, पाशुपतों का ला-भरम, परिणामको का त्रिदएड और मौडा इत्यादि। इन नियमों का समाधान शील-बतोपादान है ! आत्मवाद अात्मभाव है, जिसके लिए वाद है कि यह आत्मा है ।