पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२

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बीकमुक्ति में शान की श्रावरण शक्ति नहीं रहती, इसलिए स्वरूप-ज्ञान अनावृत । परन्तु विक्षेपशक्ति के कारण उपाधि रहती है। इसीलिए इस समय में जीव तथा जगत् की सेवा हो सकती है। जीवन्मुक्त ही यथार्थ गुरु है। एक मात्र यह गुरु ही तारक-ज्ञान का संचारक एवं यथार्थरूप में दुःखमोचक तथा सेवाप्रती है । परन्तु इस सेवा का क्षेत्र देशगत दृष्टि से परिमित है और कालगत दृष्टि से भी संकुचित है। परिमित इसलिए कि एक व्यक्ति का कर्म-क्षेत्र विशाल होने पर भी सीमाबद्ध है। सेवक के लिए सेवा का अवसर तभी तक रहता है जब तक वह देह से संबद्ध रहता है । देह छूटने पर या कैवल्य-लाम करने पर सेवा करने की संभावना ही नहीं रहती। उसका प्रयोजन मी नहीं रहता, क्योंकि व्यष्टि-चित्त की शुद्धि ही तो उसका प्रयोजन है। उसके लिए सेवाव्रत सर्वथा अनावश्यक हो जाता है । उस समय अपने आप कैवल्य प्राप्त हो जाता है। उस समय जीवन्मुक गुरु परम्पराक्रम से सेवा-व्रत का भार अपने योग्य शिष्य को देकर परमधाम में प्रयाण करते हैं। यह स्वाभाविक ही है। जिसके चित्त में परदुःख की प्रहाणेच्छा अत्यन्त प्रबल है, वह ऐसा प्रयत्न करता है जिससे शीम स्कन्ध-निवृत्ति न हो। उसका यह प्रयत्न भोग या विलास के लिए नहीं, बल्कि जीव-सेवा का अवसर बढ़ाने के लिए है। जिसके चित्त में स्वल्पमाव या संकोच नहीं है, उसमें इस प्रकार की इच्छा का उदय होना स्वाभाविक है । सभी चित्तों में इस प्रकार की इच्छा नहीं होती, यह सत्य है। परन्तु किसी-किसी में अवश्य होनी है, यह भी सत्य है । यही उसके महल का निदर्शन है । गोत्र-भेद माननेवालों की यही मूल युक्ति है। भक्ति-साधना के मार्ग में भी ठीक इसी प्रकार के विचार देखने में आते हैं। इसी लिए किसी-किसी के मत से श्रावश्यक होने पर भी भक्ति चिरस्थायी नहीं है, क्योंकि अभेद-ज्ञान या मोक्ष-लाम करने पर उसका अवकाश नहीं रहता । यह भक्ति उपाय या साधनरूप है, यहाँ उपेय ( साध्य) ज्ञान या मुक्ति है। जिनके चित्त में संकोच कम है, उन्हें नित्यभक्ति की आकांक्षा होती है । वह एलरूपा मति है । वह या तो मुक्ति से अभिन्न है, या अर्ध्व। इस प्रकार की भक्ति ही पंचम पुरुषार्थ है कितने मुक्त पुरुष भी इसके लिए लालायित रहते हैं। यह अत्यन्त दुर्लभ है । किन्तु नश्वर, परिणामी एवं मलिन देह में इस प्रकार के महान् आदर्श की ग्री असंभव है। इसलिए मत्र्यदेह को स्थिर तथा निर्मल करने के लिए प्रयत्न आवश्यक है वैष्णवों का भाव-देह, प्रेम-देह तथा रस-देह इसी प्रकार के सिद्ध-देह है। ये प्रतीत है। इसी का नामान्तर पार्पद-तनु है। इसके द्वारा नित्यधाम में नित्यभक्तिक यानन होता है। ज्ञानी के विषय में भी इसी प्रकार की बात है। साधारण दृष्टि से शाः अज्ञान का निवर्तक है, किन्तु वह अज्ञान के प्रावरणांश का ही निवर्तक है, विक्षेपांश र नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान के उदय होने पर भी प्रारब्ध का नाश नहीं होता परन्तु ऐसा मी विशिष्ट शान है जिससे विक्षेप की भी निवृत्ति हो जाती है । इस प्रकार के। के उदय के साथ ही साथ देह-पात हो जाता है। एक ऐसा भी ज्ञान है जिसके प्रभाव