पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२३

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प्रत्येक रूपादि विषय-पटक के भेद से छः प्रकार के हैं । अतः पूर्ण संख्या अट्ठारह है। अट्ठारह उपविचार सासव हैं। कोई अनासव उपविचार नहीं है । पुनः यही सौमनस्य, दौमनस्य, उपेक्षा, ग्रेधाश्रित ( अभिपंगाश्रित ) और नैष्कम्याभित भेद से ३६ शास्तृपद है। यह शास्तृपद इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि इस भेद की देशना शास्ता ने की है । नैष्क्रम्य, संक्लेश या संसार-दुःख से निष्क्रम है । गर्ध अभिष्वंग है। तृष्णा-रूपादि भेद से तृष्णा षड्विध है। इनमें से प्रत्येक का प्रवृत्ताकार त्रिविध है-काम, भव', विभव । जन चक्षु के अपाय में रूपावलंबन श्राता है, और काम के प्रास्वाद- घश उसकी श्रास्वादन प्रवृत्ति होती है, तब काम-तृष्णा होती है। जब यह शाश्वत-दृष्टि-सहगत राग हो, तब भव-तृष्णा है । उच्छेद-दृष्टि-सहगत राग विभव-तृष्णा है। इस प्रकार अट्ठारह तृष्णायें हैं। उपादान-यह अनुशय है। क्योंकि अनुशय उपग्रहण करते हैं। उपादान का अर्थ दृढ़-ग्रहण है। यह चार हैं-काम', दृष्टि', शीलवत. श्री. श्रात्मवाद' । तृष्णा के प्रसंग में इनका वर्णन ऊपर हो चुका है । भव--भव द्विविध है; कर्म और उपपत्ति' । कर्म भव है, क्योंकि यह भव का कारण है। यथा--'बुद्धों का उत्पाद सुख है' अर्थात् सुख का कारण है। सब कर्म जो भवगामी हैं, कर्म-भव है । पुण्य, अपुण्य, श्राव्य-कर्म अल्प हो या बहु कर्म-भव है। संक्षेप में कर्म चेतना और चेतना-संप्रयुक्त अभियादि कर्म संख्यात-धर्म है। उपपत्ति-भव कर्माभिनित स्कन्ध है। प्रभेद के कारण यह नवविध हैं :--काम, रूप, अरूप, संगा', असंज्ञा, नैवसंज्ञा, एक व्यवकार, चतुर्व्यवकार, पंचव्यवकार । जिस भव में संशा होती है वह संज्ञा है । इसका विपर्यय असंज्ञा है । औदारिक-संज्ञा के अभाव से और सद्भाव से नैव है । जिस भव का एक व्यवकार है, वह एक है एक में एक उपादान-स्कन्ध है । इत्यादि ! विशुद्धि० पृ० ४.३] । १. मज्झिम-[३।२१७] में ३६ शास्तृपद वर्णित है । यह छत्तीस 'सत्तपदा' हैं। यह 'गेह- सित' और 'नेक्खम्मसित' भेद से ३६ हैं। यथा 'गेहारित-सोमनरस' यह है-चक्षु- विज्ञेय, इष्ट, मनोरम रूपों का प्रतिलाभ देखकर या पूर्व प्रतिलब्ध अतीत रूप का स्मरण कर सौमनस्य उत्पन्न होता है। यथा-'नेक्खम्मसित-सोमनस्स' यह है-रूपों की अनि- स्यता जानकर सम्यक्-प्रज्ञा से यथाभूत का दर्शन कर जो सौमनस्य उत्पन्न होता है। २, पालि-बोकार' = व्यवकार । स्फुटार्था कहती है कि बुद्ध कारयप ने स्कन्ध को 'मयकार' की संज्ञा दी । व्यवकार = विशेषावकार = जो अपनी अनित्यतावश विसंवादिनी हो । गाथा में कहा है-सप फेनपिण्डोपम। विभाषा में उक है-"पूर्व-सथागत स्कन्धों को म्यवकार की संज्ञा देते हैं; किन्तु शाक्यमुनि 'स्कन्ध' अधिवचन का म्यवहार करते हैं। पूर्व पांच व्यवकार का उल्लेख करते हैं; शाक्यमुनि पांच उपादान-स्कन्ध का" ।