पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२४

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बौद-धर्म-दर्शन हम ऊपर कह चुके हैं कि प्रतीत्य क्लेश, कर्म और वस्तु हैं। पोत बीजवत् , नागवत् , मूलवत् वृक्षक्त् तुषवत् है। बीज से अंकुर-पत्रादि उत्पन्न होते है, इसी प्रकार क्लेश से झेश, कर्म और वस्तु उत्पन्न होते हैं। जिस तड़ाग में नाग होते हैं, वह शुष्क नहीं होता। इसी प्रकार भवसागर, जहाँ यह क्रश-भूत नाग होता है, शुष्क नहीं होता। जिस वृक्ष का मूल नहीं काटा जाता उसमें अंकुर निकलते रहते हैं। यद्यपि उसके पत्तों को पुनः पुनः तोड़ते रहते हैं । इसी प्रकार जब तक इस ऋशभूत मूल का उपच्छेद नहीं होता, तब तक गतियों की वृद्धि होती रहती है । वृक्ष भिन्न भिन काल में पुष्प और फल देता है । इसी प्रकार एक ही काल में यह क्लेशभूत वृक्ष लेश, कर्म और वस्तु नहीं प्रदान करता । बीज यदि उसका तुष निकाल लिया गया हो; तो समग्र होने पर भी नहीं उगता । इसी प्रकार पुनर्भव की उत्पत्ति के लिए कर्म का तुषभूत क्लैश से संयुक्त होना श्रावश्यक है। कर्म तुष-समन्वागत तण्डुल के समान है । यह औषध के तुल्य है, जो फल-विपाक होने पर नष्ट होता है। यह पुष्पवत् है । पुष्प फलोत्पत्ति का श्रासन्न कारण है। इसी प्रकार यह विपाकोत्पत्ति का श्रासन्न कारण है। वस्तु सिद्ध अन्न और पान के तुल्य है । सिद्ध अन्न और पान, सिद्ध अन्न और पान के रूप में पुनःउत्पन्न नहीं होते। उनका एकमात्र उपयोग अशन-पान में है । इसी प्रकार वस्तु है, जो विपाक है। विपाक से विपाकान्तर नहीं होता, क्योंकि इस विकल्प में मोक्ष असंभव हो जायगा। स्कन्ध-सन्तान अपनी संस्कृतावस्था में चार भवों का (अन्तरा', उपपत्ति, पूर्वकाल, मरण) उत्तरोत्तर क्रम है । उपपत्ति स्वभूमि के सर्व क्लेश से सदा क्लिष्ट होता है। यद्यपि मरणावस्था काय-चित्त से अपटु है; तथापि यदि एक पुद्गल को किसी क्लेश में अभीक्षण प्रवृत्ति होती है तो पूर्वांक्षेप से यह लश मरणकाल में समुदाचारी होता है । अन्य भव कुशल, क्लिष्ट और अव्याकृत होते हैं। यह चार भव सब धातुओं में नहीं होते । प्रारूप्यों में अन्तरा-भव को वर्जित कर शेष तीन भव होते हैं। काम-धातु और रूप-धातु में चारों भव होते हैं, यह प्रतीत्यसमुत्पाद का निर्देश है । भव-चक्र अनादि है। विशुद्धिमम्गो (पृ० ४०७-४१. .) में इस तन्त्री में अविद्या प्रधान धर्म है । यह तीनो.. वमों में प्रधान है। अविद्या के ग्रहण से अवशेष वेश-वर्म और कर्मादि पुद्गल को उपनद्ध करते हैं; यथा:-सर्प के शिर के ग्रहण से सर्प का शेष शरीर उसके वाहु को परिवेष्टित करता है । अविद्या के समुच्छेद से क्लेशादि से विमोक्ष होता है; यथा-सर्प के सिर को काटने से बाहु का विमोक्ष होता है । यथा उक्त है [सं० २१ ] कि अविद्या के अशेष निरोध से संस्कार का निरोध होता है। अतः जिसके ग्रहण से बन्ध होता है, और जिसके मुक्त होने से मोक्ष होता है, वह प्रधान धर्म है; आदि नहीं है। यह भव-चक्र कारक-वेदक रहित है, क्योंकि अविद्यादि कारणों से संस्कारादि की प्रवृत्ति होती है। इसलिए परिकल्पित ब्रह्मादि संसार- कारक नहीं है, तथा सुख-दुःख का वेदक परिकल्पित श्रात्मा नहीं है ।