पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२५

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द्वापस अध्याय २२० यह भव-चक द्वादशविध शून्यता से शून्य । अविद्या का उदय-व्यय होता है, अतः यह ध्रुवभाव से शून्य है । यह शुभभाव से शून्य है, क्योंकि यह संलिष्ट है और जय-बनक है। यह सुखभाव से शून्य है, क्योंकि यह उदय-व्यय से पीड़ित है। यह अात्मभाव से शल्य है, क्योंकि यह वशवर्ती नहीं है । इसकी वृत्ति प्रत्ययों में प्रायत्त है । इसी प्रकार संस्कारावि अन्य अंग हैं। यह अंग न प्रात्मा है, न अात्मा में है, न अात्मवान् है। इसलिए यह भव-चक द्वादशविध शून्यता से शून्य है । इस भव-चक्र के अविद्या और तृष्णा मूल हैं। अविद्यामून पूर्वान्त से आहत होता है और वेदनावसान है । तृष्णामूल अपरान्त में विस्तृत होता है और जरा-मरणावसान है। पहला दृष्टि चरित पुद्गल का मूल है, अपर तृष्णाचरित का। प्रथम मूल उच्छेद-कर्म के समुद्घात के लिए है। जग-मरण का प्रकाश कर द्वितीय मूल शाश्वत-दृष्टि का समुद्घात करता है। यह चक्र त्रिवम है । संस्कार,भव कर्म-वर्म है; अविद्या,तृष्णा उपादान-वमै है । विज्ञान नाम-रूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना विपाक-वर्म है । सादान प्रतीत्य' की देशना विविध प्रकार से करते हैं :- यथाः-बल्लिहारक आदि या मध्य से आरम्भ कर पर्यवसान तक अथवा पर्यवसान या मध्य से प्रारम्भ कर श्रादि तक बल्लि ग्रहण करता है। एक बल्लिहारक पहले बल्लि के मूल को देखता है । वह इस मूल का छेद कर सब बल्लि का आहरण करता है । इसी प्रकार भगवान् अविद्या से प्रारम्भ कर जरा-मरण पर्यन्त प्रतीत्य की देशना करते हैं। यथा:-एक बल्लिहारक पहले मध्य को देखता है । वह मध्य में बल्लि को काटता है, और ऊपर के भाग को लेता है। इसी प्रकार भगवान् कहते हैं-वेदना का अभिनन्दन करने से उसमें नन्दी उत्पन्न होती है । यह उपादान है । उपादान से भव, भव से जाति होती है (मझिम, १२२६६ )। यथा:-...एक बल्लिहारक पहले बल्लि के अग्र को देखता है । वह उसका ग्रहण कर यावत् मूल का श्राहरण करता है । इसी प्रकार भगवान् कहते हैं--"जाति से जरा-मरण होता है" जाति भव से होती है संस्कार अविद्या से होता है" ( म० १।२६१-२६२)। यथाः-एक बल्लिहारक पहले मध्य देखता है । वह मध्य में काटकर मूल तक आता है । इसी प्रकार भगवान् मध्य से प्रारंभ कर श्रादि पर्यन्त देशना करते हैं। यथा भगवान् कहते है--"इन चार आहारों का क्या प्रभव है? तृष्णा इनका प्रभव है। तृष्णा का क्या प्रभव है ? वेदना एवमादि।" यह अनुलोम-प्रतिलोम-देशना है। अनुलोम-देशना से भगवान् उत्पत्ति-क्रम को दिखाते हैं, और यह दिखाते हैं कि अपने अपने कारण से यह प्रवृत्ति होती है । प्रतिलोम- देशना से वह कृच्छ्रापन लोक को दिखाकर यह बताते हैं कि तत्तत् जरा-मरणादिक दुःख का क्या कारण है। जो देशना मध्य से श्रादि को जाती है वह पाहार के निदान को व्यवस्थापित