पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२६

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बौर-धर्म-दर्शन कर प्रतीत अध्व में जाती है, और अतीताय से प्रारंभ कर हेतु-फल-परिपाटी को दिखाती है। नो देशना मध्य से पर्यवसान को जाती है वह अनागत अथ्व को दिखाती है, और बताती है कि प्रत्युत्पन्न अध्व में अनागत हेतु का समुत्थान होता है। यहां अनुलोम-देशना उक्त है। प्रतीत्य-समुत्पाद का यह विवेचन प्रधानतः हीनयान के वादियों की दृष्टि से है। विधानवाद तथा माध्यमिक सिद्धान्त के अध्याय में महायान के श्राचार्यों की प्रतीत्य संबन्धी व्याख्या प्रदर्शित करेंगे । हीनयानियों में सौत्रान्तिकों का इस संबन्ध में विशेष फलितार्थ है। वह क्षण-भङ्गवाद है, जिसका अब विवेचन करना प्रासंगिक होगा। क्षण-भावाद ऊपर प्रतीत्यसमुत्पाद का विश्लेषण स्थविरवाद और वैभाषिकवाद की दृष्टि से किया गया । किन्तु सौत्रान्तिकों ने इसका कुछ और भी सूक्ष्म विश्लेषण किया है, जिससे धर्मों का क्षण-मूंग-वाद तथा क्षण-सन्तति-बाद निश्चित होता है। स्थविवादियों का ध्यान चित्त-चैतसिकों की क्षणिकता की ओर गया था; किन्तु बाह्य-जगत् को क्षणिक मानने के पद में वे नहीं थे। सर्वास्तिवादी वैभाषिक अवश्य ही कहीं-कहीं बाह्य- वस्तु की क्षणिकता मानते हैं। जैसे अभिधर्मकोश में [४,४ ] "संस्कृतं क्षणिकं यतः” है । परन्तु यह वसुबन्धु पर सौत्रान्तिक प्रभाव ही है। वस्तुतः पूर्वकालीन बौद्धों की क्षणिकता अनित्यता से आगे नहीं बढ़ती । वैभाषिक-सिद्धान्त में संस्कृत-धर्म जाति, जरा, स्थिति और अनित्यता इन चार अवस्थाओं में अनुवृत्त होकर सत् होता है। वैभाषिकों की यह बाह्य अक्ष- णिकता तब और स्पष्ट हो जाती है, जब वह इन चतुर्विध लक्षणों की सत्ता के लिए चार अनु- लक्षणों की सत्ता भी मान लेते हैं। इसलिए वैमानिक मत में धर्मों का प्रतीत्यसमुत्पनत्व त्रैयधिक (अतीत-अनागत-प्रत्युत्पन्नवर्ता) ही हो सकता था । फलतः ये प्रतीत्य-समुत्पाद को श्रावस्थिक एवं प्राकर्षिक मानते हैं, परन्तु सौत्रान्तिक क्षणिक और सांबन्धिक मानते हैं। सौत्रान्तिक अतीताना- गताध्य का निषेध करते हैं, और प्रत्युत्पन्न में ही वस्तु के पूर्वोक्त चतुर्लक्षणों का विनियोग करते हैं । इस प्रकार सौत्रान्तिक अन्य हीनयानियों के समान यद्यपि बहुपदार्थवादी है, तथापि उनके प्रतीत्यसमुत्पाद-नय का अध्ययन उन्हें पदार्थों की क्षण-भंगता तथा क्षण-संतति-वाद के सिद्धान्त पर पहुँचाता है। इसका विस्तार से विवेचन हम सौत्रान्तिक-बाद के प्रसंग में करेंगे। यहां थोड़े में केवल परवर्ती बौद्ध नैयायिकों की तर्क पद्धति से धर्मों की क्षण-भंगता का विचार करते हैं, क्योंकि यह प्रतीत्यसमुत्पाद का ही विकास है। क्षण-भंगता एक ओर तो अन्य तार्थिकों के विकल्पित वादों का अनायासेन निरास करती है; जैसे सांख्यों का प्रधान-वाद, गौतमादि का ईश्वर-वाद, चार्वाकादि का भूत-चतुष्टय बाद, जैमिनीयों का वैदिकशब्दराशिनित्यता-बाद। दूसरी ओर बहुसत्तावादी बौद्ध-दर्शनों के लिए अद्वयवाद का द्वार भी खोलती है। किसी वस्तु के अस्तित्व का अर्थ है, उसकी क्षणिकता। सामान्यतः सत्ता और दणिकता में विरोध प्रतीत होता है; किन्तु वस्तु की सत्ता का निधय जब उसकी अर्थक्रिया-कारिता से