पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२७

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द्वादश अध्याय करते हैं, तो यह भ्रम नष्ट हो जाता है; जैसे-वर्तमान क्षण का घट जलाहरणरूप 'अर्थ-किया। करता है। प्रश्न उठता है कि क्या अतीतानागत क्षणों में भी घट वर्तमान-क्षण की ही अर्थ-क्रिया करता है, या कोई दूसरी। प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं है कि इसके मानने से पूर्व-कृत का ही पुनः करण होगा, जो व्यर्थ है । दूसरे पक्ष में यह विचार करना होगा कि वस्तुतः घट जब वर्तमान क्षण का कार्य करता है तब उसी क्षण में अतीतानागत क्षण के कार्य को करने में शक है या नहीं ? यदि शक्त है तो अतीतानागत क्षण के कार्य को भी प्रथम क्षण में ही क्यों नहीं करता ? क्योंकि समर्थ का कोई प्रतिबन्धक (क्षेपक ) नहीं हो सकता। अन्यथा वह घट वर्तमान क्षण के कार्य को भी नहीं कर सकेगा, क्योंकि समानरूप से वह पूर्वापर कार्य में शक्त है पर अतीतानागत कार्य नहीं कर सका । इसलिए कहना पड़ेगा कि वर्तमान-क्षण-भावी घट अतीतानागतक्षण-भावी 'अर्थ-क्रिया' करने में शक्त नहीं है। प्रत्युत, सर्वथा अशक्त है । ऐसी अवस्था में शक्तत्व-अशक्तत्वरूप उभय विरुद्ध धर्मों का एक कार्य (घर) में अध्यास मानना पड़ेगा। यह तभी संभव है, जत्र अाप घट का क्षण-विध्वंस अवश्य मानें । इस प्रकार जब एक कार्य में ही तपता तथा उससे इतर स्वभाव ( असमर्थता ) दोनों मानने पड़े तो उससे समस्त घट-पटादि की क्षणभंगता स्वयं सिद्ध होती है । एक प्रश्न यह उठता है कि बौद्ध सिद्धान्त में यदि वस्तु के सत्व का अर्थ उसका 'अर्थ- क्रिया-कारित्व' है, तो प्रादि की सना के लिए उनमें अपने अपने कार्य के प्रति प्रतिक्षण बनन-व्यवहार होना चाहिये । सिद्धान्ती कहता है, ठीक है; प्रतिक्षण जनन-व्यवहार होता है, क्योंकि घर प्रतिक्षण अपूर्व है, और प्रतिक्षण नयी-नयी अर्थक्रियायें भी करता है । यह बात एक तर्क से स्पष्ट होती है:-जब, जिस वस्तु में जनन-व्यवहार की पात्रता होती है, तत्र, वह वस्तु अवश्य अपनी क्रिया भी करती है,क्योंकि बिना अर्थ-क्रिया के वस्तु में जनन-व्यवहार नहीं होता। इसी लिये किसी वस्तु के उत्पादक अन्त्यकारण-सामग्री में जनन-व्यवहार योग्यता अन्य वादियों को भी संमत है। इस न्याय से घट के अन्य क्षण की तरह श्राद्यादि पूर्वक्षणों में भी जनन- व्यवहार-योग्यता एवं अपूर्व क्रियाकारिता है । इस तर्क के विरुद्ध पूर्वपक्षी यदि कहे कि कुशूलस्थ बीज में कार्योत्पादन-सामर्थ्य का व्यवहार किया जाता है, परन्तु वह कार्य का साक्षात् जनक नहीं है । यह ठीक नहीं; क्योंकि समर्थ व्यवहार पारमार्थिक और औपचारिक भेद से दो प्रकार का होता है। यहां पारमार्थिक बनन-व्यवहार-गोचरता ही इष्ट है, जो कार्य का साक्षात् जनक है । कुशूलस्थ बीज में श्रोप- चारिक समर्थ-व्यवहार-गोचरता है। पूर्वपक्षी कहता है कि सत्व हेतु (सर्वे पदार्थाः क्षणिकाः 'सत्त्रात्' ) से वस्तु के दणिकत्व का अनुमान नहीं किया जा सकता । सत्व से क्षणिकत्व की व्याप्ति ( यत् सत् तत् क्षणिकम् ) कार्य-कारण के अन्वय-व्यतिरेक से ही संभव है, किन्तु क्षणभंग पक्ष में वह ( व्याप्ति ) प्रतिपन्न नहीं हो सकती, क्योंकि कारण बुद्धि से भावी कार्य गृहीत नहीं होगा और कार्य-बुद्धि से अतीत कारण पहीत नहीं होगा; एवं अतिप्रसंग के भय से वर्तमानग्राही शान से ही अतीता. नागत ज्ञानों का भी ग्रहण नहीं हो सकता। अपिच, क्षणभंगवाद में कोई एक प्रतिसंधाता