पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२९

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द्वादश अध्याय क्षण-ग्रहण से क्षण-मन्तति का और घट-रूप के ग्रहण से घट का निश्चय होता है। अन्यथा पूर्वपक्षी के मत में भी व्याप्ति नहीं बनेगी और अनुमानमात्र का उच्छेद हो जायेगा। नैयायिक समस्त पदार्थों को कृतक-अकृतक भेद से दो राशियों में विभक्त करते हैं; और वात्सीपुत्रीय क्षणिक-अक्षणिक में विभक्त करते हैं । बौद्ध दोनों की क्षण-भनता मानते हैं। धर्मों के उपयुक्त प्रतीत्य-समुत्पन्नत्व तथा क्षण-भकता के नय से अनीश्वरवाद एवं अनात्मवाद अनायास सिद्ध होता है। अनीश्वरवाद समस्त कार्यकारणात्मक जगत् प्रतीत्य-समुन्पन्न है। हेतु और प्रत्ययों की अपेक्षा करके ही समस्त धर्मों की धर्मता स्थित है। इसलिए, इस नय में ईश्वर ब्रह्मा अादि कल्पित कारकों का प्रतिषेध है। ईश्वरवादी कहता है कि अभिमत वस्तु के साधन के लिए जो वस्तु स्थित्वा-प्रवृत्त होती है, वह किसी बुद्धिमत्कारण से अधिष्ठित होती है; जैसे -द्वैधीकरण के लिए कुठारादि । कुठारादि उय मन नहीं होते, स्वयं प्रवृत्त हो तो कभी व्यापार-निवृत्त न हों। स्थित्वा-प्रवर्तन सर्वाभिमत है, इसलिए कोई प्रतिक भी होना आवश्यक है। यादि वस्तुओं की अर्थक्रियाकारिता भी चेतनावत् प्रेरित होने से ही है । सिद्धान्ती कहता है-मुझे इसमें इट-मिद्धि है, क्योंकि इससे ईश्वर नहीं सिद्ध होता । सिद्धान्त में चेतनारूप कर्म स्वीकृत है और उससे समस्त पदार्थ अधिष्ठित है। उक्त भी है:- कर्मजं लोकवैचिव्यं चेतना मानसं च तत् । [ अभि० ४,१] पूर्वपक्षी कहता है कि लोक-वैचित्र्य केवल कर्म से नहीं प्रत्युत ईश्वर प्रेरित धर्माधर्म है, और आप लोक का ईश्वराधिष्ठितत्व नहीं मानते: अतः श्रापके पक्ष में इष्ट-सिद्धि नहीं है । परन्तु सिद्धान्त में जब चेतनारूप कर्म स्वीकृत है, तब चेतनान्तर का मानना व्यर्थ है । यदि अन्य चेतनावत् का कर्तृत मानें भी, तो घटादि ईश्वर-कारणक सिद्ध नहीं होते; क्योंकि कुलाला- तिरिक्त ईश्वर की कारणता मानने का कोई प्रयोजन नहीं है। अन्यथा विपक्षी को ईश्वर के लिए भी ईश्वरान्तर मानना पड़ेगा। यदि अज्ञता के कारण कुलालादि की प्रवृत्ति ईश्वर- प्रेरित माने और तज्ज ईश्वर की प्रवृत्ति स्वयम् ; तो यह भी मानना पड़ेगा कि सुखदुःखोत्पाद में सर्वथा असमर्थ अज जीव को ईश्वर-प्रेरित होकर ही स्वर्ग या नरक भोगना पड़ता है। इस प्रकार ईश्वर वैवम्य-नस्य योगों से ग्रस्त होगा। पुनः ईश्वर का सर्वज्ञत्व और सर्व-कर्तृत्व अन्योन्याश्रय-बाधित है। ईश्वर में पहले सर्व-कर्तृत्व सिद्ध हो तब सर्वशत्व सिद्ध होगा और सर्वज्ञत्य सिद्ध होने पर सर्व-प्रेरणा कर्तृत्व साबित होगा। अन्यथा ईश्वर का भी प्रेरक अन्य ईश्वर मानना पड़ेगा। फिर यह भी प्रश्न होगा कि सर्वज्ञ ईश्वर श्रज्ञ जीवों को असद्व्यवहार में प्रवृत्त क्यों करता है । विवेकशील जन लोगों को सदुपदेश करते हैं। किन्तु ईश्वर जम विपथगामी लोगों को भी उत्पन्न करता है, तब वह प्रमाण कैसे माना जाय ! फिर ईश्वर की यह कौन सी बुद्धिमत्ता है कि जीव को पहले पाप में प्रवृत्त करता है, बाद में उससे व्यावृत्त कर धर्माभिमुख करता है ।