पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४२ नौद-धर्म-दर्शन यदि ईश्वर तत्कार्याधिष्ठित होकर ही जीव को पाप में प्रवृत्त कराता है, फिर भी उसक प्रेक्षाकारित्व की हानि माननी पड़ेगी। क्योंकि प्रश्न होगा कि उसने जीव से ऐसा पाप क्यों कराया । यदि यह माने कि वह अधर्म नहीं कराता है बल्कि अधर्मकारी को फल का अनुभव कराता है, तो यह मानना पड़ेगा कि ईश्वर अपनी असमर्थता के कारण जीवों को पाप कर्मों से हटा नहीं पाता । और यदि वह यह नहीं कर पाता तो उसके लिए सर्व-कर्तृत्व की घोषणा करना व्यर्थ है। फिर ऐसी अवस्था में वह धर्मादि भी क्या करा सकेगा? क्या ईश्वर के बिना लोग अपने अधर्माचरण का फल नहीं भोग लेते ? भोगते ही है; निरर्थक व्यापार में कोई प्रेक्षावान् क्यों प्रवृत्त होगा ? यदि उसकी ऐसी प्रवृत्ति क्रीड़ा के लिए होती है, तब उसका वह प्रेक्षाकारित्व धन्य है कि एक की क्षणिक तृप्ति के लिए अन्य को अपने जीवन को स्कटमय बनाना पड़े ! आपके सिद्धान्त में समस्त शास्त्र यदि ईश्वरकृत है, तो दानादि के द्वारा उनके उपदेशों की सत्यासत्यता का निर्णय कैसे होगा ? यति दानादि विषयक कुछ शास्त्र उसके विरचित नहीं है,तो वह उसके समान अन्य सर्व को भी कैसे बना सकेगा १ यदि ईश्वर को सत्वों के धर्माधर्म से ही प्रेरित होकर समस्त पदार्थ संभव करना पड़ता है, तो ईश्वर की कल्पना व्यर्थ है । क्योंकि धर्माधर्म की प्रेरणा से सत्व ही यह सब क्यों न कर लेगा। पूर्वपक्षी कहे कि जीव सबका कर्ता नहीं हो सकता, तो मैं पूछता हूँ तुम्हारे अभिप्रेत सर्व के कर्तृत्व का उपयोग ही क्या है ? एक जीव के द्वारा न सही,सर्व जीवों के द्वारा सर्व-कर्तृत्व माने तो तुम्हारी क्या क्षति है ? देखा भी जाता है कि कभी बहुतों के द्वारा एक क्रिया संपादित होती है, और कभी एक के द्वारा बहुत क्रियाएँ । यदि कहो कि सर्व-कारकत्व तो किसी एक में ही मानना पड़ेगा, अन्यथा उसमें सर्वशत्व भी संभव नहीं हो सकेगा। इसलिए, एक प्रधान कर्ता ईश्वर को मानो नो प्रार्थियों के मनोरथ सिद्ध कर सके, त्वदभिप्रेत सर्वज्ञतामात्र से कोई प्रार्थियों का सेव्य नहीं हो सकता । परन्तु मैं कहता हूँ; कोई श्रर्थानर्थ क्रिया में शक एवं सर्वज्ञ भी हो, फिर भी अपनी अनुपकारिता के कारण ही किसी का सेव्य नहीं होगा । सर्वज्ञत्व एवं सर्वश- कित्व पहले निश्चित हो तब पर्व-कारकत्व सिद्ध होगा। परन्तु सभी दृष्टान्तों में असर्वश का ही कर्तृत्व देखा नाता है। इसलिए कर्तृत्व से सर्वज्ञल्ल सिद्ध नहीं होगा । फिर अपने कार्य के प्रति कुलालादि में अश्ता ही कहां है, जिससे ईश्वर की आवश्यकता पड़े ? यदि सुन कुलाल में भी ईश्वर की प्रेरणा के बिना कार्य-क्षमता नहीं आती तो उसी के समान ईश्वर को भी अपने कार्य में अन्य से प्रेरित मानना पड़ेगा। यदि उसने अपने में सर्वज्ञता सिद्ध करने के लिए सर्व-प्रेरकता भी सिद्ध कर ली, तो इसे किसने देखा है ? ईश्वरवादी जगत् के विभिन्न संस्थान-विशेषों की रचना के लिए. ईश्वर में उपादान- गोचरता और चिकीर्षा श्रादि मानता है । परन्तु वृक्षादि संस्थान अचित् वीजादि-कारण-विशेष से ही संपन्न होते हैं । इसके लिए पुरुष-पूर्वकता आवश्यक नहीं है । क्योंकि कोई भी सुशिक्षित चेतन बीज-विजातीय वृक्ष उत्पन्न नहीं कर सकता। पूर्वपक्षी यदि कहे कि मूपिण्ड का संस्थान कुलाल उत्पन्न नहीं कर सकता, तो हम कहते हैं; मृरिपएड को उत्पन्न ही क्या करना है ? ताइक् वर्ण-संस्थान-रूप ही तो मृपिएद है।