पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३३

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द्वादश अध्याय २१२ बुद्धा धर्म का अविपरीत ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसके संबन्ध में ज्ञान की इच्छा उदय हुई है। एक चित्त- क्षण सर्व ज्ञान का सामर्थ्य नहीं रहता। अतः इस सन्तति को सर्वज्ञ कहते हैं । वात्सीपुत्रीय प्रश्न करते हैं कि यदि श्रवक्तव्य पुद्गल नहीं है, तो भगवान् क्यों नहीं कहते कि जीव सर्वशः नहीं है, वह क्यों वन्गगोत्र (एक भिक्षु) के प्रश्न करने पर कि श्रात्मा है या नहीं, 'हां' या 'ना में उत्तर नहीं देते। इस प्रश्न का उतर स्वयं भगवान् ने दिया है। भगवान् कहते हैं कि यह भिक्षु कदाचित् इम विचार से कि जीव स्कन्ध-गन्तान है, जीव के मंबन्ध में प्रश्न करता है। यदि भगवान् यह उत्तर देते हैं कि जीव सर्वशः नहीं है, तो प्रश्नकर्ता मिथ्यादृष्टि में अनुपतित होता है; और यदि भगवान् यह कहते हैं कि जीव है, तो यह धर्मता को बाधित करता है, क्योंकि कोई धर्म न अात्मा है, न अात्मीय । दृष्टि से जो क्षत होता है, उसको विचार कर और दूसरी ओर कुशल-कर्म का भ्रंश देख कर बुद्ध धर्म की देशना उसी प्रकार करते हैं, जैसे व्याघ्री अपने बच्चे को दाँत से पकड़ ले जाती है । यहाँ एक श्लोक उदाइत करते हैं- दृष्टिदंष्ट्रावा.दं चापेक्ष्य भ्रशं च कर्मणाम् । देशयन्ति व्यानापोतापहारवत् ।। (कुमारलात ) जैसे व्याघ्री अपने बच्चे को अति निष्ठुरता से दांतों से नहीं पकड़ती और न अति- शिथिलता रो दी; उसी प्रकार बुद्ध पूछे जाने पर कि अात्मा है या नहीं, विधेयात्मक या निषेधा- स्मक कोई उत्तर नहीं देते। जो अात्मा के अस्तित्व में प्रतिपन्न है, वह दृष्टि-दंष्ट्रा से विदीर्ण होता है, और जो संवृत्तिसन् पुद्गल को नहीं मा-गना, यह कुशल कर्म का दंश करता है । अात्मवाद शाश्वतवाद है, और यह सोचना कि आत्मा नष्ट हो गयी है उच्छेदवाद है । तथा- गत इन दो अन्त का परिदार कर मध्यमा-प्रतिपत्ति से धर्म की देशना करते हैं । इसके होने पर वह होता है.... अविद्या के होने पर संस्कार होते हैं, क्योंकि कोई द्रव्य-सत् जीव नहीं है; इसलिए बुद्ध नहीं कहत कि जीव अनन्य है या अन्य । यह यह भी नहीं कहते कि जीव का वास्तव में अस्तित्व नहीं है, इस भय से कि कहीं ऐसा कहने से लोग यह न समझने लगे कि प्राप्तिक जीव भी नहीं है। एक दूसरा प्रश्नकर्ता पूछता है कि यदि पुद्गल का अस्तित्व नहीं है, तो संसार में संचरण कौन करता है ? वसुबन्धु उत्तर देते हैं कि यथार्थपक्ष बहुत सीधा है; यथा-जो अग्नि वन का दाह करती है उसके विषय में लोक में कहते हैं कि यह संचरण करती है । यद्यपि वह अग्नि के क्षण हैं तथापि ऐसा कहते हैं | क्योंकि इनकी एक सन्तान होती है । इसी प्रकार स्कन्ध-समुदाय निरन्तर नवीन होकर उपचार से सत्व की आख्या प्राप्त करता है, और तृष्णा का उपादान लेकर स्कन्ध-सन्तति संसार में संसरण करती है । वसुबन्धु एक दूसरी युक्ति देते हैं । यदि कोई अात्मा में प्रतिपन्न है तो इस प्रारम-दृष्टि से उसमें श्रात्मीय-दृष्टि उत्पन्न होगी। इन दो दृष्टियों के होने से उसमें श्रात्म-लेह और श्रात्मीय-स्नेह होगा। ऐसा होने से सत्काय-दृष्टि होगी। वह प्रात्म-स्नेह और श्रात्मीय-स्नेह के बन्धनों से श्राबद्ध होगा और मोक्ष से अति दूर होगा। श्रात्मवादी यह प्रश्न करते हैं कि यदि आत्मा का परमार्थतः अस्ति नहीं है तो चित्त, जो उत्पन्न होते ही निरुद्ध हो जाता है, बहुत पहले अनुभूत किए गये विषय का स्मरण