पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३५

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२१० में अपर वैद्य के समान पाचरण करना है, जो मंत्रों से ओषधि को अभिमन्त्रित करता है। फट ! स्वाहा ! मन्त्रों का उच्चारण करता है, यद्यपि औषध में रोग के उपशम का पामर्थ्य है। सांख्य का श्राक्षेप है कि यदि अपर-विशन पूर्व-विज्ञान से उत्पन्न होता है,श्रात्मा से नहीं; तो अपर-विज्ञान पूर्व-विज्ञान के सदृश नित्य क्यों नहीं होता, जैसे--अंकुर-काण्ड-पत्रादि का होता है । पहले प्रश्न का उत्तर यह है :-क्योंकि नो हेतु-प्रत्यय-जनित (संस्कृत) है, उसका लक्षण 'अन्यथाव ( स्थित्यन्यथात्व) है। 'संस्कृत' का ऐसा स्वभाव है कि उनकी सन्तान पूर्व से भिन्न होगा। यदि इसके विपरीत होता तो ध्यान समाहित योगी का स्वयं व्युत्थान नहीं होता । क्योंकि काय और चित्त की उत्पत्ति नित्य सदृश होती, और सन्तान के उत्तरोत्तर क्षण अनन्य होते । दूसरी कठिनाई के सम्बन्ध में यह कहना है कि चित्तों के उत्पाद का क्रम भी नित्य है । यदि किसी चित्त को किसी दूसरे चित्त के अनन्तर उत्पन्न होना है,तो वह उस चित्त के अनन्तर उत्पन्न होगा। दूसरी ओर कुछ चित्तों में अांशिक सादृश्य होता है, जिसके कारण वह अपने गोत्र के विशेष लक्षणवश एक दूसरे के अनन्तर उसन्न होते हैं। जिस चित्त का इन चित्तों में से जो गोत्र अर्थात् वीन होगा, उसके अनुसार यह दूसरा चित्त होगा, अन्यथा जब सशत्र नहीं होगा तब नहीं होगा। पुनश्च; विविध हेतुवश एक चित्त के अनन्तर विविध चित्त पर्याय से उत्पन्न हो सकते हैं। इन सब चित्तों में जो 'बहुतर' हैं --बो अतीत के प्रवाह में रह चुके हैं, जो 'पटुतर' हैं--जो उस्ाद्य चित्त के 'ग्रासन्नतर' हैं; वह पहले उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इन चित्तों से चित्त-सन्तान प्रबल रूप से वासित होती है। वसुबन्धु पुनः कहते हैं कि यदि अापका यही मत है कि अात्मा चित्तों का श्राश्रय है,तो हम श्राप से उदाहरण देकर इस अाश्य-त्राश्रित संबन्ध का विवेचन करने के लिये कहते हैं। चित्त (जिसे संस्कार प्रभावित करते हैं ) चित्र या बदर-फल नहीं है, जिसे अात्मा का श्राधार चाहिये; जैसे भित्ति चित्र का प्राधार है या भाजन बदर-फल का आधार है । वस्तुतः एक पक्ष में ( श्रात्मा और चित्त-संस्कार के बीच ) प्रतिघातित्व स्वीकार करना पड़ेगा और दूसरे पक्ष में चित्र और बदर-फल का, भित्ति और भाजन का पृथग-देशत्व होगा। श्राप कहते हैं कि यथा पृथिवी, गन्ध, रूप, रस, स्प:व्य का अाश्रय है; उसी प्रकार आत्मा चित्त-संस्कार का श्राश्रय है। हम इस उदाहरण पर प्रसन्न हैं, क्योंकि यह अात्मा के अभाव को सिद्ध करता है। यथा गन्धादि से अन्यत्र पृथिवी की उपलब्धि नहीं होती, जिसे लोक में 'पृथिवी' कहते हैं; वह रूपादि का समुदाय मात्र है। उसी प्रकार चित्त-संस्कारा से अन्य अात्मा नहीं है। पृथिवी गन्धादि से अन्य है यह कौन निर्धारित कर सकता है ? किन्तु यदि गन्धादि से अन्य पृथिवी है तो यह व्यपदेश कम होता है, कि यह गन्धादि पृथिको के हैं। विशेषण के लिए पृथिवी का गन्ध, पृथिवी का रस ऐसा कहते हैं । दूसरे शब्दों में इससे यह सूचित किया जाता है कि अमुक गन्ध-रस अादि की पृथिवी श्राख्या है; यह वह गन्ध, रस श्रादि नहीं है, जिनकी 'अप' श्राख्या है । यथा लोक में जब किसी वस्तु को काष्ठ-प्रतिमा का शरीर कहते हैं, तो इससे यह सूचित किया जाता है कि यह वस्तु काष्ठ की है, मृण्मय नहीं है,। बसुबन्धु पूछते हैं कि यदि आत्मा संस्कार-विशेष की अपेक्षा कर चित्त का उसाद करता है