पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३७

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२४६ अन्त में वसुबन्धु परीक्षा करते है कि बीज से फल की उत्पत्ति कैसे होती है। लोक में कहते है कि फल बीज से उत्पन्न होता है, किन्तु इस उक्ति का यह अर्थ नहीं होता कि फल निरुद्ध-बीज से उत्पन्न होता है, या फल बीज के अनन्तर अर्थात् विनश्यमान-बीज से उत्पन्न होता है। वास्तव में बीज-सन्तान के परिणाम के अतिप्रकृष्ट -क्षण से फल की उसत्ति है। बीज उत्तरोत्तर अंकुर, कांड, पत्र का उत्पादन करता है, और अन्त में पुष्य का; बिससे फल का प्रादुर्भाव होता है । यदि कोई यह कहता है कि बीज से फल की उत्पत्ति होती है, तो इसका कारण यह है कि बीज ( मध्यवर्तियों की) परंपरा से पुष्प में फलोसादन का सामर्थ्य अाहित करता है । यदि बीज फलोसादन के सामर्थ्य का--जो पुष्प में पाया जाता है, पूर्व हेतु न होता तो पुष्प बीज के सदृश फल उत्पन्न न करता । इसी प्रकार कहा जाता है कि फल कर्म-जनित है, किन्तु यह विनष्ट कर्म से उत्पन्न नहीं होता, यह कर्म के अनन्तर उत्पन्न नहीं होता; यह कर्म-समुत्थित सन्तान के परिणाम के अतिप्रकृष्ट क्षण से उत्पन्न होता है । सन्तान से हमारा अभिप्राय रूपी और अरूपी स्कन्धों से है, जो अविच्छिन्न रूप से एक सन्तान में उत्तरोत्तर प्रवर्त्तमान होते हैं, और जिस सन्तान का पूर्व हेतु कर्म है। इस सन्तान के निरन्तर क्षण है; इसलिए, सन्तान का परिणाम, अन्यथात्व होता है । इस परिणाम का अन्य क्षण एक विशेष या प्रकृष्ट सामर्थ्य रखता है। यह सामर्थ्य फल का तत्काल उत्पादन करता है । इस कारण यह क्षण अन्य क्षणों से विशिष्ट है । इसलिए इसे 'विशेष' अर्थात् परिणाम का प्रकर्षपर्यन्त प्राप्त क्षण कहते है।