पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३९

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प्रयोदश अध्याय होता। वस्तुत: 'पृष्ठ से ही कर्म की परिसमाप्ति होती है । कर्म की गुरुता प्रयोग, मौलकर्म और पृष्ठ की गुरुता पर निर्भर करती है । राब मानसिक-कर्म हम ऊपर कह चुके हैं कि कभं दो प्रकार का है:-चेतना और चेतयित्वा कर्म । चेतना मानस कर्म है। कायिक-वाचिक कर्म के बिना ही मानस कर्म अपने अभीष्ट की प्राप्ति कर सकता है । दण्डकारण्यादि की कथा है, कि ऋषियों के मनःप्रदोष से वह निर्जन हो गये, उनके कोप मे दण्डकादि शून्य हो गये, और महाजन का व्यापाद हुअा । यह मानस कर्म की गुस्ता को मिद्ध करता है। अतः भगवान् कहते हैं कि तीन दण्डों ( कायदण्ड, वागदण्ड, मनोदण्ड, दण्ड=र्म ) में मनोदण्ड महामावद्य है, और सर्व सायद्यों में (पापों में) मिथ्यादृष्टि सर्व पापिष्ठ है । ऋद्धिमान् श्रमश या ब्राह्मण की चेतना का बड़ा सामर्थ्य है। मैत्री-भावना भी एक चेतना है या चेतना-सन्तति है | मैत्री-भावना में कोई प्रतिग्राहक नहीं है । परानुग्रह नहीं होता, तथापि मैत्रा-चित्त के बल से ही उसके लिए पुण्य का उत्पाद होता है। जिन में रुचि का होना ही मानर-कम है | इमो प्रकार भगवदंशना को श्रवण कर, कि सर्व दुःख है, मैं उसमें श्रद्धा उत्पन्न करता हूँ, मैं उसमें अभिनिविष्ट होता हूँ । अन्त में मेरा इस देशना में रुचि होती है, और मैं दुःख-सत्य का साक्षात्कार करता हूँ। यह सब चेतनाख्य कर्म हैं। काय-कर्म वाक-कर्म ऋषियों की शुद्ध चेतना से ही फल होता है। किन्तु सामान्यतः फल प्राप्ति के लिए चेतन को काय और वाक् का समुत्थान करना होता है । शत्रु के प्राणातिशत की चेतना और शत्रु का प्राणातिपात क नहीं है । प्राणातिपात एक चेष्टा-विशेष है, काय-सन्निवंश विशेष है; जिससे जीव के जीका का अपहरण होता है । यदि मैं शत्रु का वध करता हूं, तो मैं उसका अधिक अपकार करता हूँ; यदि मैं केवल उसका उपघात करता है, तो कम अस्कार करता है । मेर द्वेष का भाव प्राणातिपात से हड़ और सबल होता है । मानसिक पूजा और भक्ति से मेरी चित्त-सन्तति वासित होती है । किन्तु यदि मेरी भक्ति सक्रिय हो तो मेग पुण्य अधिक हो । जो अप्रतिक्षित देश में बुद्ध का शारीर स्तूप प्रतिष्टित करता है, जो चातुर्दिश भिक्षु-संघ को पाराम-विहार प्रदान करता है, जो भिन्न संघ का प्रतिसंधान करता है, यह ब्राह्म-पुण्य का प्रमा करता है। अत: काय-विज्ञमि और वाग- विज्ञप्ति का सामथ्य चेतना से पृथक् है । कर्म की परिपूर्णता, समासता (परिपूरि) चेतना क्षणिक है। किन्तु पौनःपुन्थेन अभ्यासवश कायवाग्विप्ति का समुत्थान करने से इसकी गुरुता होती है। अन्य शब्दों में बहु-चेतना-वश कर्म की गुरुता होती है। अतः परिसमाप्त और असमाप्त कर्म में विशेष करना चाहिये। कर्म की परिपूर्णता के लिये निम्नलिखित चार बातो की आवश्यकता है :-