पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४

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दु:खसन्तानसंस्पर्शमात्र दोष बार्तिककार धर्मकीति ने करुणा को भगवान बुद्ध के प्रामाण्य के लिए साधन माना है, और कहा है कि यह अभ्यास से संपन्न होती है। साधने करुणाभ्यासात् सा बुद्धदेहसंश्रयात् । असिद्धोऽभ्यास इति चेन्नाश्रयप्रतिषेधतः ॥ 'अभ्यासात् सा' इसकी व्याख्या में मनोरयनंदि ने कहा है- गोत्रविशेषात् कल्याणमित्रसंसर्गादनुशयदर्शनाच्च कस्मिन्महासत्वः कृपाया- मुपजातस्पृहः सादरनिरन्तरानेकजन्मपरम्परामभवाम्यासेन सात्मीभूतकृपया गेर्थमाण: सर्वसम्यानां समुदयहान्या दु:खहानाय मार्गभावनया निरोधप्रापणाय च देशना कतु - कामः स्वयमसाक्षात्कृतस्य देशनायां विप्रलम्भसंभावनाचतुराईसत्यानि साक्षात्करोतीति भगवति साधनं कृपा प्रामाण्यस्य । [१।३६] श्रावक तथा प्रत्येक-बुद्ध से बुद्धों का यही वैशिष्ट्य है । धर्मकीर्ति ने लिखा है- परार्थवृत्तेः खङ्गादेविशेषोऽयं महामुनेः। उपायाभ्यास एवायं तादाच्छासनं मतम् ॥ [१ । १७६ ] प्रत्येक बुद्ध, श्रावक प्रभृति का लक्षण वासना-हानि है। परन्तु सम्यक्-संबुद्ध परावृत्ति होने के कारण सर्वोत्तम है। यह दया सत्वदृष्टिमूलक नहीं है, किन्तु वस्तुधर्म है। इसीलिए यह दोषावह नहीं है । वातिककार ने कहा है- दुःखजानेऽविरुद्धस्य पूर्वसंस्कारवाहिनी । वस्तुधर्मा दयोत्पत्ति सा सस्वानुरोधिनी । [१।१७६ ) दुःख का ज्ञान होने पर पूर्व संस्कार के प्रभाव से दया स्वभावतः ही उत्पन्न होती है । यह सर्वत्र अप्रतिहत है। पूर्व संस्कार का अर्थ प्राक्तन अभ्यास की प्रवृत्ति है। वस्तुधर्म का तात्पर्य वस्तु का अर्थात् कृपाविषयीभूत दुःख का धर्म है। यहाँ टीकाकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिनकी आत्महष्टि सर्वथा उन्मूलित है, ऐसे महापुरुषों को दुःख के संमुखीन होते ही दया उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि उन्होंने दुःख को कृपा के विषयरूप में ग्रहण करने का अभ्यास कर लिया है । सत्र दुःखों का मूल कारण मोह है । बौद्धमत में सत्वग्राह या आस्मग्राह ही मोह का मूल है। जब इसका उन्मूलन हो जाता है तो किसी के प्रति द्वेप नहीं होता। क्योंकि जिसे आत्मदर्शन नहीं है, उसे किसी के द्वारा अपकार प्राप्ति की भ्रान्ति नहीं होगी। अतः वह किसी से द्वेष क्यों करेगा? इस प्रकार यह कृपा दोषों के मूलभूत अात्मयाह के प्रभाव से ही उत्पन्न होती है, इसलिए वह दूषणीव नहीं है । धर्मकीर्ति ने कहा है- १७८] पूर्व कर्मों के श्रावेश के क्षीण हो से और दुःखर्जना न्य कारणों के अत्यन्त नष्ट हो जाने से अप्रतिसंधि के कारण मुक्ति अवश्य होती है। किसी महाकृपा से संपन्न 2395 10.2.95 ene hund