पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४१

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अयोपशमन्याय पशु की मृत्यु हो जाय, और यदि उसकी मृत्यु तत्काल न हो, और मैं उस पशु की मृत्यु के पहले ही मृत हो जाऊँ, तो मैं प्राणातिपात के प्रयोग से 'स्पृष्ट' होकर मृत होता हूँ, किन्तु प्राणाति- पात के मौल कर्म-पथ से 'स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि जिस क्षण में मौल-कर्म सम्पन्न होता है, उस क्षण में मैं अन्य होता हूँ। मैं अब यह आश्रय नहीं हूँ, जिसने प्रयोग संपन्न किया है। प्रायातिपात की आज्ञापन-विज्ञप्ति प्राणातिपात की अाशा प्रागातिरात नहीं है। प्राणातिपात तभी है, जब आशा का अनुसरण हो, और यह उसी क्षण में है, जिस क्षण में प्राज्ञा के अनुसार कार्य होता है । एक भिक्षु दूसरे भिन्तु से अमुक का वध करने के लिए कहना है । वह अपराध करता है, दूसरा मितु अमुक का वध करता है। उस समय दोनों भिन्नु, एक गुरु पाप के दोषी होते हैं। इससे उनकी भिक्षुता नष्ट होती है। यदि द्वितीय भिन्न, को संज्ञा-विभ्रम होता है, और वह अन्य का वध करता है तो उस अवस्था में प्रथम का एक अपूर्व अपराध होता है, द्वितीय का गुरु पाप होता है। यदि द्वितीय भिक्षु दूसरे का वध यह जान कर करता है, कि यह अन्य है, तो प्रथम का उत्तरदायित्व नहीं है। पुण्य-क्षेत्र उपकार और गुण के कारण क्षेत्र विशिष्ट होता है, यथा-माता को दिया दान विशिष्ट होता है; यथा-शीलवान् को दान देकर शतसहस्र विपाक होता है । सब दानों में मुक्त का मुक्त को दिया दान श्रेष्ठ है । इस प्रकार कर्मों की लथुता और गुरुता जानने के लिए क्षेत्र का भी विचार रखना होता है । पितृ-मातृ-वध अानन्तर्य कर्म है। अानन्तर्य का दोषी इस जन्म के अनन्तर ही नरक में जन्म लेता है। यह 'अानन्तर्य' इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि इनका फल अनन्तर ही उत्पन्न होता है। किसी भिनु को दान देना पुण्य है पर किसी अर्हत् को दिया गया दान महत्-पुण्य का प्रसव करता है । अर्हत्-वध श्रानन्तय कर्म है | गुण के कारण विशिष्ट श्राय पुण्य-पुण्य के क्षेत्र हैं। इनके प्रति किया हुश्रा शुभ या श्रशुभ महत्पुण्य या महत् अपुण्य का प्रसव करता है। यदि मैं यशदत्त ( जो आर्य नहीं है ) का वध करने की इच्छा से श्रार्य देवदत्त की हत्या करता हूँ तो मैं आय के वध का आपन्न नहीं हूँ, क्योंकि याश्रय के विषय में संज्ञा- विभ्रम है। किन्तु यदि मैं बुद्धिपूर्वक, बिना भ्रम के, आर्य देवदत्त का वध करूँ, तो मैं आर्य के प्राणातिपात का श्रापन्न हूँ; यद्यपि मुझको श्रार्यता का ज्ञान न हो । यदि मैं एक भिनु को, जो वस्तुतः श्रार्य है, सामान्य भिक्षु समझ कर दान हूँ तो मैं अमित पुण्य का भागा हूँगा। इसके विपरात नो मितु अपने से छोटे भितु का, जिसके अईत्-गुण को वह उपेक्षा करता है; पराभव करता है, यह पाँच सौ बार दास होकर जन्म लेता है। इसीलिए आर्य अरणा-समाधि (कोश, ७,३६ ) का अभ्यास करते हैं। जिनमें उसके दर्शन से किसी में क्लेश को उत्पत्ति न हो, जिमें उनके लिए किसी में राग-द्वेष-