पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४२

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२५५ पौर-धर्मदर्शन जिस क्षण मानादि उत्पन्न न हों। वह जानते है कि वह अनुत्तर पुण्य-क्षेत्र हैं। उनको भय है कि कहीं दूसरे उनको देखकर उनके विषय में नेश न उत्पन्न करें ( जो विशेष कर उनको हानि पहुंचावे)। उनकी अरणा-समाधि का यह सामर्थ्य है कि दूसरों में लेश उत्पन्न नहीं होता। अविशति-कर्म ऊपर हम कह चुके हैं कि विज्ञप्ति से संभूत कुशल-अकुशल रूप 'अविज्ञप्ति है । यहाँ हम अविज्ञप्ति की व्याख्या करेंगे। 'विज्ञप्ति' वह है जो काय द्वारा या वाक् द्वारा चित्त की अभिव्यक्ति को 'ज्ञापित' करती है। प्राणातिपात-विरति का समादान ( ग्रहण ) जिस वाक्य से होता है, वह वाग्विज्ञप्ति है । प्राणातिपात को अाज्ञा, अर्थात् 'अमुक का वध करो' वाग्विज्ञप्ति है । काय का प्रत्येक कर्म काय- विज्ञप्ति है। जो प्राणातिपात की आज्ञा देता है, वह वाग्विज्ञप्ति का अस्पन्न है । जिस क्षण में बधिक वध करता है, वह काय-विज्ञप्ति का श्रापन्न होता है । किन्तु हम कह चुके हैं कि प्राणातिपात की अाशा देनेवाला उस क्षण में बध नामक कायिक-विज्ञप्ति का आपन्न होता है, में उसकी आज्ञा का अनुवर्तन कर वध होता है । उस क्षण में यह किम प्रकार का कर्म करता है ? उस समय वह अन्य कार्य में ब्यात होता है। कदाचित् वह अपनी अाज्ञा को भी भूल गया है । वह उस समय पाप-चित्त से संप्रयुक्त नहीं है। अतः यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वध के क्षण में श्रागा देन वाले म अविज्ञाप्त कर्म की उत्पत्ति होती है। यह कर्म कुछ 'जापिता नहीं करता, तथापि यह विज्ञप्ति के समान वस्तुमत् है । यह अविज्ञप्ति कायिक-अविज्ञप्ति कहलाती है । यद्याप यह याविज्ञप्ति ( प्राणातिपात का श्राज्ञापन-विज्ञप्ति ) से संभूत होती है, क्योंकि यह काय-विज्ञप्ति ( वध-कर्म ) के. क्षण में उत्पन्न होती है । जिस सत्व ने प्रातिमोक्ष-संवर' का समादान किया है, यह निःसन्देह अन्य से भिन्न है। जिस भिक्षु ने प्राणातिपात-विरति का समादान किया है, वह उससे कहीं श्रेष्ठ है, जो सुअवसर न पाने के कारण प्राणातिपात से विरत है, किन्तु जो अबसर पाने पर वध करगा। निद्रा की अवस्था में भी भिक्षु, भिक्षु ही रहता है। अतः हमको स्वीकार करना पड़ता है कि-"मैं प्राणातिपान से विरत होता हूँ।" यह वाग्विशस्ति एक अविज्ञात का उत्पाद करता है । यह विज्ञप्ति के सदृश दूसर को कुछ विशापित नहीं करता । इसका अनुबन्ध है । निद्रा में, असंक्षि-समापत्ति और निरोध-समापत्ति में, यहाँ तक विक्षिप्त-चित्त में भी, इसकी वृद्धि होती रहती है। यह एक सेतु है जो दौःशील्य का प्रति- 1. 'संबर "विरति' को कहते हैं। संवर वह है, जो दोशील्य-प्रबन्ध का संवरण करता है। प्रातिमोक्ष-संबर इस लोक के सस्त्रों के शील को कहते हैं। यह आठ प्रकार का है- भिक्षु, भिक्षुणी, श्रामणेर, श्रामणेरिका, उपासक, उपासिका, शिक्षमाण और उपवसथ का संवर।