पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४५

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प्रयोदश अध्याय करती है, और प्रतिसन्धि = उपपत्ति ) विशेष के योग्य बनाती है। रेरा का विपाक तभी होता है, जब यह चेतना का समुत्थापक होता है। चेतना कर्म का अभिसंस्कार करती है। इसी के कारण शरीर-चेष्टा शुभ या अशुभ होती है। जब प्राणातिपात चेतना, संचेतना या अभिसंचेतना से उत्पादित होता है, तब इसका विपाक नरकोपपत्ति होती है । बुद्धिपूर्वक होने से ही कर्म अभिसंस्कृत होता है। यदि कोई यह समझकर कि वह धान्य दे रहा है, सुवर्ण देता है, तो सुवर्ण का दान तो हुग्रा; किन्तु यह सुवर्ण-दान के कर्म में अभि- संस्कृत नहीं होता, क्योंकि सुवर्ण-दान की चेतना का अभाव है। प्रत्येक कर्म के लिए, एक मनसिकार चाहिये । एक इष्ट विषय दृष्टिगोचर होता है। मैं वीतराग नहीं हूँ। रागानुशय का समुदाचार होता है। मैं उस वस्तु के लिए प्रार्थना करता हूँ। यदि मैं सहसा बिना विचार किए उसको ग्रहण करता हूँ, तो यह कर्म नहीं है, क्योंकि कोई चेतना नहीं है । श्रालंबन में मेरे चित्त का आवर्जन होता है ! मैं उपनिध्यान करता हूँ। यह दो प्रकार के हैं:-१. योनिशो मनसिकार, २, अयोनिशो मनसिकार । योनिशो मनसिकार--अनित्य को अनित्य, अनाम को अनात्म, अशुभ को अशुभ, इस सत्यानुलोभिक नय से चित्त का समन्याहार, आवर्जन 'योनिशो मनसिकार है (योनि = पथ)। अयोनिशो मनसिकार-अनित्य को नित्य इत्यादि नय से चित्त का उत्पथ आवर्जन है। पहले इष्ट विषय के यथार्थ स्वभाव का संतोरण ( सम्यक् विचार-विमर्श ) होता है । तदनन्तर जो कर्म होता है, वह कुशल है। दूसरे पक्ष में मनसिकार उत्पथ है, कर्म भी अकुशल है। कुशल-भकुशख मूल कुशल (शुभ )-कर्म क्षेम है, क्योंकि इसका इष्ट-विपाक है; इसलिए, यह एक काल के लिए दुःख से परित्राण करता है ( कुशल सासव । अथवा यह निर्वाण-प्रापक है, और इसलिए, दुःख से अत्यन्त परित्राण करता (अनासव कुशल )। अकुशल (अशुभ) कर्म अक्षेम है, इनका अनिष्ट विपाक है । लौकिक शुभ-कर्म का पुण्य-विपाक होता है। उसका विपाक सुख, अभ्युदय और- सुगति है। लोकोत्तर-कर्म अनास्रव है। अतः यह पुण्य-अपुण्य से रहित है, अर्थात् अविपाक है। यह हित, परम पुरुषार्थ, अर्थात् दुःख की अत्यन्त निवृत्ति का उत्पाद करता है । यह निर्वाण परम शुभ है, क्योंकि यह रोग के अभाव के समान सर्वथा शान्त है । अतः जिसका दाख-विपाक है, वह अकुशल है; जिसका सुख-विपाक है, या जिसका विपाक निःश्रेयस् है ( स्वर्ग, ध्यान-लोक, निर्वाण ), बह कुशल है | सम्यक्-इष्टि, जो निर्वाण- प्रापक है, शुभ है; यह निर्वाण का आवाहन करती है, क्योंकि यह सत्य है। वैराग्य जो ध्यानो- पपत्ति का उत्पाद करता है, शुभ है, क्योंकि जिन वस्तुओं से योगी विरक्त होता है, वह औदा-