पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४७

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प्रयोदश अध्याय दौमनस्य से संप्रयुक्त है, अतः द्वेष उस समय भी अकुशल है, जब वह परापकार नहीं करता। क्रोध सत्व (जीव) असल्व के विरुद्ध श्राघात (चित्त-प्रकोप ) है । अद्वेष प्राणातिपादि से विरति है; यह क्षान्ति है । इसके अन्तर्गत दान, स्तृता वाक्, लोक-संग्रह के कार्य, संघ-सामग्री ( संघ को समग्र रखना, उसमें भेद न होने देना ) मैत्री- भावनादि ( मैत्री, करणा, मुदिता, उपेक्षा, यह बार ब्रह्माविहार ) है । सामान्य पार्यों की मैत्री अद्वेष है । बुद्ध की मैत्री लोकोत्तर-प्रजा है और अमोह-स्वभाव है। खोम-प्रलोभ-लोभ अकुशल-मूल है । अलोभ, निवेद, विराग, कुशल-मूल है । लोभ वह छन्द है, जो दूसरे के दुःख का हेतु होता है। अभिध्या, अदत्तादान, और काममिथ्याचार लोभज हैं । ईर्ष्या, पैशुन्य, प्राणातिपात और द्वेप-हेतुक सर्व अयद्य अप्रत्यक्ष रूप से लोभ से प्रवृत्त होते हैं। श्रतः लोभ राग से अन्य है। राग तभी अकुशल होता है, और दुःख-विपाक का उत्पाद करना है, जब वह सावध होता है । या तो वह दूसरे का अपकार करता है, यथा---परस्त्रीगमन, मांसाहार के लिए पशुवध, या अपना ही अपकार करता है; यथा- मद्यपान करने वाला जो शिक्षापदों (अदनादानादि ) की रक्षा नहीं करता । अथवा वह नियमों का भंग (अपनी स्त्री के साथ, अयोनिमार्ग से, अयुक्त स्थान में, अकाल में संभोग) करता है । वस्तुतः यदि सब अकुशल-कर्म ऐहिक सुख के निमित्त किया जाता है, तो इसका विपर्यय ठीक नहीं है । कुछ काम-सुख उचित हैं। इनका परिभोग ही और अपनाय की हानि के बिना हो सकता है । श्रात्मगौरव को देखकर जो लजा होती है, वह ही है, और परगहीं के भय से जो लजा होती है, वह अपनान्य है । यदि कतिपय कामावचर काम-सुख में राग मना नहीं है, तो अनागत जन्म के सुख में, स्वर्ग के सुख में, अनुरक्त होना और भी मना नहीं है । यह राग शुभ है, क्योंकि यह पुण्य- कर्म का हेतु है। किन्तु यह काम-राग है, इसलिए यह समाधि, ध्यान तथा सत्य-दर्शन द्वारा निर्वाण-मार्ग के प्रवेश में प्रतिबन्ध है। समापत्ति-राग और ध्यान-लोकोपपत्ति-सुख में राग कामसुख नहीं है, किन्तु भवराग है । दो ऊर्ध्व धातुओं के प्रति जो राग होता है, उसके लिए ही भवराग संज्ञा है। इसे भवराग इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसकी अन्तमुखी वृत्ति है, और इस संशा की व्यावृत्ति के लिए भी कि यह दो धातु मोक्ष हैं, इसे भवराग कहते हैं। यह राग शुभ है। इसे लोभ नहीं कहना चाहिये, यद्यपि यह तृष्णा है। यह कुशल-धर्मच्छन्द है, क्योंकि काम सुख से यह विरक्त है। प्रलोभ, विराग, श्रात्यन्तिकरूप से सदा कुशल-मूल है। यह काम-मुख-समापत्ति तथा निर्वाण-मार्ग से भी वीतराग होता है।