पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४८

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२६० बौद-धर्म-दर्शन निर्वाण का प्रतिलाम लोभ के निरोध से होता है। निर्वाण की इच्छा करना क्या लोभ नहीं है । अागम कहता है, निर्वाण-मार्ग का भी प्रहाण करना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि जो वैराग्य निर्वाण का आवाहन करता है, उसमें राग नहीं होना चाहिये । मार्ग कोलोपम (कोल - रैफर, तमेड) है। उसका अवश्य त्याग होना चाहिये, किन्तु निर्वाण का त्याग नहीं होना चाहिये। वस्तुतः निर्वाण की इच्छा अन्य इच्छात्रों से भिन्न है। इसे 'लोभ या तृष्णा नहीं कहना चाहिये। अन्य इच्छाएँ स्वार्थपर होती है। उनमें ममत्व होता है । निर्वाण की इच्छा ऐसी नहीं है । न यह भव-तृष्णा है, न विभव-तृप्या; क्योंकि यद्यपि निर्वाण वस्तुसत् है, तथापि परिनिर्वृत (जिसका परिनिर्वाण हो गया है) के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्व नहीं है । निर्वाण अनिमित्त है । यह वस्तु निरमिलाप्य, अनिर्वचनीय स्वभाव है। मोह और सम्यग-ष्टि--तृतीय अकुशल-मूल मोह है । अमोह, सम्यग्-दृष्टि, धर्म-प्रवि- चय, प्रजा का यह प्रतिपक्ष है। मोह और अज्ञान में विशेष करना चाहिये । मोह क्लिष्ट अचान है। यह द्वेष और राग का हेतु है, किन्तु अशान अलिष्ट हो सकता है; यथा-श्रार्यों का अशान । केवल बुद्ध ने ही अलिष्ट अज्ञान का सर्वथा अत्यन्त विनाश किया है, अन्य बुद्ध धर्मों को, अतिविप्रकृष्ट देश और काल के अर्थों को तथा अर्थों के अनेक प्रभेदों को नहीं जानते । श्रार्य वस्तुओं के सामान्य लक्षणों (उनकी अनित्यता श्रादि ) को जानते हैं । इसी अर्थ में बुद्ध ने कहा है कि-"मैं कहता हूँ कि यदि एक धर्म का भी अभिसमय ( सम्यग-शान) न हो तो निर्वाण का प्रतिलाभ नहीं हो सकता। किन्तु बहुत कम वस्तुनों के स्वलक्षण का उनको शान होता है । कुछ तीथिकों का मत है कि बुद्ध की सर्वशता का केवल इतना अर्थ है कि यह सर्वशता मोक्षविषयक ही है। सर्व मोह क्लिष्ट है, किन्तु सर्व मोह अकुशल, पाप दृष्टि नहीं है । मोह अकुशल है, अत्र उसका स्वभाव अपुण्य-कर्म का उत्पाद करना है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि, जो मोह का प्रतिपक्ष है, कई प्रकार की है । सामान्य जन की सम्यग-दृष्टि प्रांशिक होती है । वे प्रधानतः पुनर्जन्म और कर्म-विषाक में विश्वास करते है। विविध कार्यों को अधिक या कम सत्य-दर्शन की प्राप्ति होती है। लौकिक-दृष्टि के चार प्रकार हैं। उनके अनुरूप सम्यग-दृष्टि के भी चार प्रकार हैं। अकुशल-मोह जो अपाय-गति (नरक, प्रेत, तिर्यक् और असुर का उत्पाद करता) है, वह इस प्रकार है :-१. मिथ्याष्टि, २. शीलक्तपरामर्श । एक मोह है बो अकुशल नहीं है :--यात्मप्रतिपत्ति । अकुशल-मोह में सबसे प्रथम स्थान मिथ्याटि का है । सब दृष्टियों को मिथ्याप्रवृत्त है, मिथ्यादृष्टि है, किन्तु मिथ्यादृष्टि को ही यह संज्ञा प्राप्त है, क्योंकि यह सबकी अपेक्षा अधिक मिथ्या है; यथाः-अत्यन्त दुर्गन्ध को 'दुर्गन्धा कहते हैं । यह नास्ति-दृष्टि है, यह अपवा-