पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५

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(२१ ) हैं, उनका जन्माक्षेपक कर्म प्रणिधान परिपुष्ट है, अतः उनके संस्कार की शक्ति क्षीण नहीं होती, इसीलिए वह सम्यक्-संबुद्ध हैं। ये यावत् अाकाश चिरस्थायी है। परन्तु श्रावकों का कर्म ऐसे देह का आक्षेपक है जिसकी स्थिति का काल नियत है। उनमें करुणा अत्यन्त मृदु है, अतः देहस्थापन के लिए उनमें अपेक्षित महान् यत्न भी नहीं है । इसीलिए उनकी सदा स्थिति नहीं है। परन्तु इसके विपरीत वे महामुनि जो दूसरों के उपकार साधन के लिए ही हैं, और अकारण-वत्सल हैं, वे वस्तुतः कृरामय हैं । इस अर्थ में ये पराधीन है। इस विशिष्ट पराधीनता के कारण ये लोग चिरस्थितिक हैं। धर्मकीति ने कहा है-- तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा ।। १ । २०१] अद्वयवन ने तत्वालावली में कहा है कि श्रावक और प्रत्येक-बुद्ध की करुणा सत्वा- वलंबन है। सत्रयों के दुःखदुःवत्व तथा परिणामदुःखत्व का अवलंबन करके इनकी करुणा उत्पन्न होती है । श्रावक की देशना बाचिकी है, किन्तु प्रत्येक बुद्ध की देशना कायिकी है। संबुद्धों के अनुत्पाद से और श्रावकों के परिक्षय से प्रत्येक बुद्धो का शान असंसर्ग से ही उत्पन्न होता है । यहाँ असंसर्ग से अभिप्राय अपने में ऐसी विशिष्ट पात्रता के संपादन से है, जिसमें सूर्यज्योति के समान स्वभावकाय या धर्मकाय के स्वभावतः प्रसरणशील रश्मियों का स्वतः ही श्राधान होता है। और सम्यक्-संबुद्धों से प्रत्येक-बुद्ध की यही मिन्नता है। बौद्ध साधना का प्रत्येक अंश ही प्रज्ञा तथा करुणा की दृष्टि से ही विचारणीय है । देशना भी इसी के अनुरूप है। श्रावक, प्रत्येक बुद्ध और सम्यक्-संबुद्ध इन तीन प्रकार के साधकों के बीच महायान ही योग-पथ है। यद्यपि उसमें अवान्तर भेद हैं, फिर भी मुख्यतः दो ही धाराएँ हैं- १. पारमिता-नय, और २. मन्त्र-नय । सभी सौत्रान्तिक मृदुपारमिता-नय स्वीकार करते हैं। योगाचार और माध्यमिकों में कोई पारमिता-नय और कोई मन्त्र-नय ग्रहण करते हैं । ज्ञान के साकार या निराकार मानने के कारण योगाचार दो प्रकार के हैं । साकारवाद में परमाणु को षडश नहीं माना जाता। इस मत में सभी चित्त-मात्र है। इसमें ग्राह्य और ग्राहकभाव नहीं है। कामधातु, रूपधातु और अरूपधातु तानों चित्तमात्र हैं। ये चित्त निरपेक्ष विचित्र प्रकाशात्मक है । चित्त जब विकल्पशून्य होता है, तब उसे ही श्रद्धत-साक्षात्कार कहते हैं । निरा- कारखाद में चित्त श्रनाकार संवेदनरूप है। धामनायुक्त चित्त अर्थाभास के रूप में प्रवृत्त होता है। श्राभासमात्र ही माया है। जो तस्त्र है वह निरामास है। वह शुद्ध अनन्त आकाशवत् है । बुद्धकाय या धर्मकाय निष्प्रपञ्च तथा निरास है। उससे दो रूपकायों ( संभोगकाय तथा निर्माणकाय ) का उद्भव होता है। दोनों ही मायिक हैं । अन्य मत में किसी-किसी का लक्ष्य मायोरम अद्वयवाद है । कोई प्राचार्य इस प्रकार का श्रदयवाद नहीं मानते। उनके मत में सर्वधर्माप्रतिष्ठानवाद हा युक्तिसिद्ध है | मायोपम- समाधि, महाकरुणा, तथा अनाभोग चर्या के द्वारा बोधिसत्व सर्व का दर्शन और ज्ञान करते हैं।