पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद्ध-धर्म-परान शीख-व्रत-परामर्श आहेतु में हेतु-दृष्टि, श्रमार्ग में मार्ग-दृष्टि, शील-व्रत-परामर्श है। अर्थात् महेश्वर, प्रजापति या किसी अन्य को, जो लोक का हेतु नहीं है, लोक का हेतु मानना; अग्नि- प्रवेश या बलप्रवेश इन आत्महत्या के अनुष्टानों के फल को स्वर्गोपपत्ति मानना; शीलतमात्रक को जो मोक्षमार्ग नहीं है, मोक्षमार्ग अक्धारित करना; तथा योगी और सांख्यों के जान को, जो मोक्षमार्ग नहीं है, मोक्षमार्ग मानना; एवमादि । वो दृष्टि शीलबत मात्रक में बहुमान प्रदर्शित करती है, वह दृष्टि शील-व्रत-परामर्श कहलाती है। यह दृष्टि दूसरे का अपकार करती है; यथा-पशु यज्ञ में; अपना अपकार करती है यथा-गोशील, श्वानशील के समादान के काट, आत्महत्या का कष्ट । किन्तु इसका सब से अधिक दोष यह है कि यह स्वर्ग और निर्माण के द्वार को पिनद्ध करती है, क्योंकि यह प्रमार्ग को मार्ग अवधारित करती है। यह समझना कि प्रार्थना और तीर्थयात्रा से पुत्र-लाभ होता है, मूर्खता है । यदि प्रार्थना पर्याप्त होती तो प्रत्येक के चक्रवत्ती राजा के तुल्य सहस्र पुत्र होते। तीन हेतु हो तो गर्भावक्रान्ति होती है; माता नीरोग और ऋतुमती हो, माता-पिता मैथुन-धर्म करें और गंधर्व प्रत्युपस्थित हों। यह समझना कि मृतक-संस्कार, स्तोत्र-पाठ और मंत्र-जप से मृत को स्वर्ग का लाभ होता है, घोर मूर्खता है। स्नान से पाप का अपकर्षण नहीं होता। यदि जल से पाप-क्षालन होता तो मकरों की स्वर्ग में उत्पति होती (थेरगाथा, २३६) । “जल से शुद्धि नहीं होती । वही शुद्ध, यथार्य ब्राह्मण है, जो सत्यवादी है ।" ( उदान १,६)। किसी ने बुद्ध से पूछा:-क्या श्राप बाहुका नदी में लान करते हैं १ बुद्धः- बाहुका में स्नान करने से क्या होगा। प्रभकर्ताः- यह पुण्य और मोक्ष की देने वाली नदी है, बहुजन उसमें स्नान करके अपने पापों का प्रक्षालन करते हैं। किन्तु बुद्ध कहते हैं कि पवित्र नदियों में स्नान करने से किल्बिर करने वाला मनुष्य शुद्ध नहीं होता। जो शुद्ध है, उसका उपोसथ है, उसका व्रत सदा सम्पन्न होता है। ब्रामण ! गया जाकर क्या होगा ? तुम्हारे लिए कूप ही गया है । यहीं स्नान करो। सर्व भूतों का खेम करो । मृषावाद न करो, प्राणी की हिंसा न करो, श्रद्धायुक्त और मात्सर्य रहित हो (मभिम ११३६)। मोद और विशुद्धि के उपाय है-निनका प्रयोग श्रमण और प्रजित करते है। अन्य तीकि, बालक, गोशील श्वानशील आदि का समादान करते हैं। वह तण चरते है, विटा खाते हैं, इत्यादि । अन्य अंगच्छेद, जलाग्नि-प्रवेश पर्वत-निपात, अनशन-मरण आदि कष्टप्रद अनुशान करते हैं। इनसे स्वर्गापपत्ति या मोक्ष का लाभ नहीं होता। इनसे नारक दुस्ख हा