पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५१

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प्रयोदश अध्याय होता है। संघाटि के धारणमात्र से श्रमण नहीं होता, अचेलकमात्र से श्रमण नहीं होता (मझिमनिकाय, १२८१) किन्तु शुभ मंगल, प्रत, अनुष्ठान का कुछ उपयोग है। कतिपय विद्याओं से ऋद्धि का प्रतिलाभ होता है । इनसे परचित्त का ज्ञान होता है, ऋद्धिप्रातिहार्य होता है; अमिशाओं की सिद्धि होती है। किन्तु यह अकुशल है। बुद्ध ने कुछ अनुष्ठानों को गहित बताया है, यथा--अचेलक रहना, श्वानशील का समादान करना । यदि शील-त्रत को मोक्ष का साधन समझे तो सब प्रकार के शील-बत निंद्य है, किन्तु चित्त-संशोधन के लिए तथा निर्वाण के लिए कई अनुष्ठान अावश्यक है | वह भिन्तु प्रशंसा का पात्र है, जो कहता है कि-"मैं इस पर्यक यासन को भिन्न नहीं करूँगा, जबतक मैं वासयों से चिरा को विमुक्त न कर लूँगा (मझिम- निकाय ११२१६)। बौद्ध-धर्म में जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश, अनशन-मरण मना है । हम यहाँ अनेक मिथ्याष्टियों को गिनाते हैं, जो शील-व्रत-परामर्श और दृष्टि-परामर्श के अन्तर्गत हैं । वसुबन्धु विभाषा के अनुसार मोहन प्राणातिपात, अदत्तादानादि का उल्लेख करते हैं-यथा पशुयज्ञ को एक धार्मिक अनुष्ठान समझकर पशु-वध करना, यथा धर्मपाठकों के अधिकार से राजा दुष्टों के स्व का अपहरण करता है, यथा बहुत से लोग विश्वास करते हैं कि सर्प-वृश्चिकादि के वध की आज्ञा है, क्योंकि यह पशु अपकारक हैं। वह समझते हैं कि श्राहार के लिए वन्य-पशु, गो-वृषभ, पक्षी, महिय को मारने में पाप नहीं है । कुछ बातियों में यह विश्वास है कि वृद्ध और व्याधित माता-पिता के वध से पाप नहीं होता, किन्तु पुण्य होता है; क्योंकि मरण से उनको अभिनव और तीक्ष्ण इन्द्रियों का लाभ होगा । ब्राह्मण यज्ञ के लिए. पशु का वध करते हैं, और विश्वास करते हैं कि पशु की स्वर्ग में उपपत्ति होती है । उनके धर्मपाटक कहते हैं कि दुष्टों को दण्ड देना राजा का मुख्य पुण्य-कर्म है। यह स्तेय और मृपावाद को युक्त सिद्ध करते हैं। वह कहते हैं कि-"उपहास में, स्त्रियों से, विवाह में, भय में, मृपावाद अवद्य नहीं है ।" यह सब अज्ञानवश पाराचरण करते हैं। अत: शील के लिए तत्वज्ञान की आवश्यकता है। तो क्या वह पाप का भागी नहीं होता, जो यह न जानकर कि वह पाप कर रहा है, पाप कर्म करता है ? नहीं। माता-पिता का वध, चाहे पुण्य बुद्धि से किया जाय या द्वेषादि से, पाप है । वसुबन्धु राजा, धर्मपाठक, सैनिक, डाकू सबको एक ही श्रेणी में रखते हैं। ऐसा मोह मिथ्याष्टि है, जो 'अकुशल' नहीं है । सत्कायदृष्टि और शाश्वत-दृष्टि शुभ कर्म में हेतु हो सकते हैं। मैं शुभ कर्म करता हूँ, स्योंकि मैं फल की आशा करता हूँ। मैं दूसरे पर करुणा करता हूँ, क्योंकि उसकी आत्मा भी मेरे समान दुःख भोगती है । लौकिक करुणा के अभ्यास के बिना यथार्थ करुणा का उत्पाद नहीं होता। प्रथम लौकिक करुणा की साधना होनी चाहिये । इसमें दुःखी 'आत्मा' का अवधारण होता है। पश्चात् दुःखो ख्व से पृथक् दुःख का अवधारण होता है। बुद्ध और आर्य लौकिक चित्त का, प्रत्याख्यान नहीं करते।